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________________ प्राकृतपैंगलम् , अनुष्टुप् से मात्रिक गाथा का विकास कथमपि नहीं माना जा सकता। अनुष्टुप् मूलतः चतुष्पात् छन्द है, जब कि गाथा छन्द, भले ही बाद में संस्कृत पंडितों के हाथों पड़कर चतुष्यात् बन गया हो, असली रूप में विषम द्विपदीखण्ड था, जिसकी प्रथम अर्धाली में ३० तथा द्वितीय अर्धाली में २७ मात्रा होती थीं। बाद में संस्कृत पण्डितों ने इसे १२:१८ १२.१५ का विभाजन कर चतुष्यात् बना दिया है। इस छन्द का मात्रिक "पैटर्न" और द्विपदीत्व भी इसके लोकगीतात्मक उत्स का संकेत करते हैं । वस्तुतः गाथा को शिखा तथा माला छन्द की तरह विषम द्विपदी मानना डा० वेलणकर को भी अभीष्ट है। अपभ्रंश-काल के नवीन तुकान्त तालच्छन्दों के प्रचार ने साहित्य में गाथा छन्द की मर्यादा में कमी कर दो, पर फिर भी जैन अपभ्रंश के धार्मिक ग्रन्थों का यह आदरणीय छन्द बना रहा, और अपभ्रंश कवि भी यदा-कदा अपने काव्य में इस छन्द का प्रयोग करते रहे । शर्त यह थी कि गाता या गाथा वर्ग के छन्दों में वे प्रायः प्राकृतनिष्ठ शैली का प्रयोग करते थे । 'संदेशरासक' में अद्दहमाण ने तथा 'सनत्कुमारचरित' में हरिभद्र ने गाथा छन्द का प्रयोग करते समय प्राकृतनिष्ठ शैली ही अपनाई है। प्रा० पै० की गाथाओं में भी यही शैली पाई जाती है तथा मध्ययुगीन हिंदी में भी नन्ददास की 'रूपमंजरी', 'पृथ्वीराजरासो', सूर्यमल के 'वंशभास्कर' आदि की गाथायें प्राकृताभास शैली में निबद्ध हैं। वैसे हिंदी के मध्ययुग में आकर इस छन्द की रही सही प्रतिष्ठा भी कम हो चली थी। केशवदास के 'अजायबघर ' में इस छन्द के भी एक-आध नमूने देखने को मिल जायँगे, लेकिन यह एक प्रकार से भक्तिकाल तथा रीतिकाल का उपेक्षित छन्द रहा है । यह दूसरी बात है कि भिखारीदास, सुखदेव, गदाधर, नारायणदास आदि छन्दः शास्त्रियों ने इसका संकेत छन्दः शास्त्रीय ग्रन्थों में अवश्य किया है। आधुनिक युग में छन्दों के प्रयोग की दृष्टि से मैथिलीशरण गुप्त का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने प्रायः सभी तरह के वर्णिक, मात्रिक, तुकांत, अतुकांत छन्दों का प्रयोग किया है। गाधा और उसके गीति, उपगीति जैसे भेद भी उनसे नहीं बचपाये हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त गोति-भेद का एक उदाहरण निम्न है : ५७२ 'करुणे क्यों रोती है, 'उत्तर' में और अधिक तू रोई । (१२. १८) 'मेरी विभूति है जो, उसको 'भव-भूति' क्यों कहे कोई ? (१२, १८) प्राकृत के गाथा वर्ग के छंद मूलतः अतुकांत हैं, किन्तु गुप्तजी ने संस्कृत तथा प्राकृत के उन छन्दों का भी तुकांत प्रयोग ही किया है। 'गाथा' या 'आर्या' छंद की मात्रिक गण प्रक्रिया मूलतः निम्न मानी गई है : ४+४+ ४ 1 8 +8 + + ४+ प्रथम दल द्विलीय दल ४ ४ ४ 3 ४ ४ + + ४ + — इस गणप्रक्रिया में प्रायः विषम गणों के चतुर्मात्रिक गण में जगण (-) का विधान नहीं किया जाता । दोनों दलों में तृतीय चतुर्मात्रिक के बाद यति होने पर उसे 'पथ्या गाथा' कहते हैं; जहाँ यह यति नहीं पाई जाती वह 'विपुला गाथा' कहलाती है। विपुला के भी तीन भेद किये जाते हैं। केवल प्रथम दल में यति न होने पर मुखविपुला, केवल द्वितीय दल में यति न होने पर 'जघनविपुला' तथा दोनों दलों में यति न होने पर 'सर्वविपुला' संज्ञा दी जाती है। मूलतः विपुला वह गाथाभेद है, जहाँ यति विधान नहीं पाया जाता, किंतु बाद में यह माना जाने लगा कि तीसरे गण का शब्द यदि कहीं १२वीं मात्रा के बाद भी १३वीं या १४वीं पर या बाद में भी समाप्त हो तो वहाँ यति मानी जाने पर विपुला गाथा होती है । हम बता चुके हैं, भिखारीदास तथा गदाधर इसी मत के हैं, यद्यपि उनके मतों में भी थोड़ा भेद अवश्य है । 'रणपिंगल' के लेखक ने भी इसी मत को माना है : Jain Education International - (साकेत नवम सर्ग) १. डा० वेलणकर इसका विकास अनुष्टुप् से जोड़ते हैं जो ठीक नहीं जँचता । २. Apabhramsa Metres II. p. 51 (Univ. of Bom. Jour. Nov. 1936). 3. Sandesarasaka (Metre) § 20, p. 70. ४. दे० अनुशीलन ६ १३६. ५. रणपिंगल पृ० १०६ 'त्रीजा गण केरो शब्द, ज्यां पुरो थाय त्यां विरति आणो । ( १३, १७) विपुला आर्या त्रण जातिनी, बने से खरू जाणो ॥ ' (१५, १२). For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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