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________________ प्राकृत छंदःपरम्परा का दाय गाथा छंद तथा उसके प्ररोह ६ १६१. प्राकृत छन्दःपरम्परा का प्रमुख प्रतिनिधि छन्द 'गाथा' (गाहा) है; जिसके विविध प्ररोह ही गाहिनी, सिंहिनी, . विगाहा, उग्गाहा, खंधअ (स्कंधक) हैं । गाथा छन्द मूलतः वर्णिक छन्द न होकर मात्रिक छंद ही हैं, यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसका संबंध संस्कृत वर्णिक वृत्त अनुष्टुप् से ही जोड़ने की चेष्टा की है। वैसे खास प्रकार के छन्दों के लिए 'गाथा' संज्ञा का प्रयोग वैदिक काल में ही प्रचलित रहा है, किंतु प्राकृत 'गाथा' को इन वैदिक गाथाओं से ज्यों का त्यों जोड़ देना ठीक नहीं जान पड़ता । 'गाथा' शब्द मूलतः वैदिक है, तथा इसका संबंध / गा धातु से है । ऋग्वेद में इसका ठीक वही अर्थ है, जो 'गातु' शब्द का, अर्थात् 'गेय छन्द' । किन्तु 'गाथा' मूलतः वे छंद थे, जो मन्त्रभाग न होकर देवस्तुतिपरक छन्द न होकर, 'नाराशंसी' तथा "रैभी" की तरह मनुष्यों की दानस्तुतियों या अन्य सामाजिक विषयों से संबद्ध थे। अथर्वसंहिता के भाष्यकारों ने कतिपय छंदों को गाथा ही कहा है। ऐतरेय आरण्यक में छंदों को ऋक्, कुंभ्या तथा गाथा, इन वर्गों में बाँटा गया है तथा वहीं ऋक् तथा गाथा का यह भेद किया गया है कि ऋक् दैवी है, गाथा मानुषी। प्राय: वैदिक ग्रंथों तथा विद्वानों का यही मत है कि गाथायें ऋक्, यजुष तथा साम से इसलिए भिन्न है कि वे मन्त्र नहीं हैं । यज्ञ के समय गाई जाने वाली 'यज्ञगाथाओं' तथा विवाह के समय गाई जाने वाली गाथाओं का संकेत मैत्रायणी संहिता में मिलता है। इसी तरह उदार दानी राजाओं की स्तुति में निबद्ध गाथाओं का भी जिक्र मिलता है, जिन्हें 'नाराशंसी' कहा जाता है। इतना होने पर भी यह स्पष्ट है कि वैदिक गाथायें मूलतः अनुष्टुप् जैसे वर्णिक वृत्तों की ही नींव पर टिकी हैं, वे मात्रिक नहीं हैं। अवेस्ता में भी मंत्र-भाग के छन्दों को 'गाथा' (Gapa) कहा जाता है, किन्तु अवेस्ता के 'गाथा' छंद भी वणिक ही हैं, मात्रिक नहीं। उदाहरणार्थ, अवेस्ता के नवम यस्न की प्रथम गाथा मूलतः अष्टवणिक अनुष्टुप् वृत्त की ही नींव पर टिकी है। "हावनीं आ रतूं आ हओमो उपाहत जरथुश्त्रम् । ऑत्रम् परि-यओजदथेंन्टॅम्, गाथास्च स्रॉवायन्सॅम् ।।''३ (मस्न ९.१) ऐसा जान पड़ता है, मात्रिक गाथायें मूलतः भारत-यूरोपीय छन्द या मूल वैदिक छन्द का प्ररोह न होकर वैदिक आर्यों से पूर्व भारत में रहने वाली जातियों के लोक-साहित्य की देन है। संभवतः 'गाथा' का मात्रिक रूप द्राविड जाति की देन हो । रामायण-महाभारत में इस तरह के मात्रिक छन्द का अभाव तथा बुद्धवचनों एवं प्राचीन बौद्ध साहित्य या जातकों में इसकी अनुपलब्धि इस बात की पुष्टि करती है कि उत्तरी भारत में मात्रिक गाथाओं का प्रचार ईसवीं सन् के शुरू के आसपास की देन हैं। धम्मपद की गाथा में मूलत: अनुष्टप या त्रिष्टप-जगती वर्ग के वर्णिक छन्द ही हैं। संभवतः द्राविड संपर्क के कारण आर्यों में प्रचलित मात्रिक गेय पदों को वैदिक नाम 'गाथा' से ही पुकारा जाने लगा हो, किंतु बहुत बाद तक यह छन्द केवल गीतों में प्रयुक्त होता रहा है। कालिदास के नाटकों में नटी आदि के गान का यह पेटेंट छन्द है। इस छंद का पहला विशद प्रयोग हमें हाल की 'गाहासत्तसई' की गाथाओं में मिलता है, जिसका मूल जन्मस्थान आन्द्र तथा महाराष्ट्र जान पड़ता है। संभवतः प्राकृत-काल के आरंभिक दिनों में ही द्राविड लोकगीतों का यह छन्द महाराष्ट्री प्राकृतभाषी जनता में लोकप्रिय हो चल हो और वहीं से इसने धीरे-धीरे समस्त मध्ययुगीन साहित्य को छेक लिया हो। प्राकृत-काल में गाथा छन्द का घनिष्ठ सम्बन्ध न केवल पद्य तथा गीतों से ही रहा है, बल्कि महाराष्ट्रो प्राकृत से भी इसका गठबंधन था, इसे प्राकृत साहित्य का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है। १. Velankar : Apabhramsa Metras II.p.51. R. According to the usage of the Brahmanas and liturgical literature, as stated by St. Petersburg Dictianary, the Gathas are, though religious in content distinguished from Re, yajus, and Saman as non-vedic-that is, are not mantras. - A. Macdonell : Vedic Index. pp. 224-225. ३. उक्त गाथा में हओ, पाइ जैसी चिह्नित ध्वनियों को एकाक्षर ध्वनिसमूह मानना होगा तथा अक्षर पर अर्धचन्द्र (*) का चिह्न उदासीन स्वर का संकेत करता है। - लेखक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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