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प्राकृतपैंगलम् सुगीत छंद (१.४) १८ वर्ण जगण, भगण, रगण, सगण, २ जगण । कुछ छन्द ऐसे भी हैं, जिन्हें 'केशव' के संपादक रीतिशास्त्र के नदीष्ण लाला भगवानदीन ने 'केशव की ईजाद' मान लिया है, पर दरअसल ऐसा है नहीं । प्रथम प्रकाश के ४४ वें छन्द - सिंहवलोकितको लाला जी ने वर्णिक वृत्त मानकर इसे केशव का बनाया बताया है । वस्तुतः यह १६ मात्रा का चतुष्पात् छंद है, तथा केशव के उक्त छंद में ही प्रथम द्वितीय चरण में १४ वर्ण हैं, तो तृतीय-चतुर्थ में १३ ही, किंतु चारों चरणों में १६ मात्रा बराबर हैं । इस छन्द का जिक्र प्रा० पैं० (१-१८४, १८५) तथा भिखारीदास के 'छन्दार्णव' (७.३५-३६) में भी मात्रावृत्तों के प्रकरण में ही मिलता है। इस छन्द का विशेष विवरण 'सिंहावलोकित' के प्रकरण में द्रष्टव्य है। भिखारीदास के 'छन्दार्णव' में वर्णिक वृत्तों का विस्तार से विवेचन दसवें तरंग से लेकर पन्द्रहवें तरंग तक मिलता है। इस दृष्टि से भिखारीदास का प्रयास शास्त्रीय दृष्टि से अधिक संपन्न है। हिन्दी के अन्य छन्दोग्रन्थों ने प्रायः व्यावहारिक दृष्टि से ही वर्णिक छन्दों का विवेचन किया है।
$ १५९. एक से लेकर २६ वर्षों तक के वृत्तों की तत्तत् कोटि को क्रमशः उक्ता (१), अत्युक्ता (२), मध्या (३), प्रतिष्ठा (४), सुप्रतिष्ठा (५), गायत्री (६), उष्णिक् (७), अनुष्टुप् (८), बृहती (९), पक्ति (१०), त्रिष्टुप् (११), जगती (१२), अतिजगती (१३), शक्वरी (१४), अतिशक्वरी (१५), अष्टि (१६), अत्यष्टि (१७), धृति (१८), अतिधृति (१९), कृति (२०), प्रकृति (२१), आकृति (२२), विकृति (२३), संस्कृति (२४), अभिकृति (२५), उत्कृति (२६), संज्ञा दी जाती है। भिखारीदास के 'छन्दार्णव' में भी इस तालिका को दिया गया है, किंतु यहाँ २२ वर्ण तथा २५ वर्ण के छन्दों के लिए एक ही नाम 'अतिकृति' का प्रयोग पाया जाता है, जो ठीक नहीं जान पड़ता । वस्तुतः प्रथम 'आकृति' है, द्वितीय 'अभिकृति', 'अतिकृति' जैसा कोई नाम पुराने आचार्यों ने नहीं माना है। इन वृत्तों के मोटे पैमाने में विविध स्थानों पर लघु गुरु की बंदिश में परिवर्तन करने से ही अनेक छन्दोभेद की कल्पना की जाती है, जिनमें लघु गुरु के स्थान-भेद के कारण छन्द की गति, लय और गूंज में फर्क आ जाता है । इसी भेद को संकेतित करने के लिये गणों की व्यवस्था की गई है। प्राकृतपैंगलम् के प्रथम परिच्छेद के आरंभ में ही मात्रागणों और वर्णिक गणों का उल्लेख किया गया है। मात्रा गणों का यद्यपि मात्रिक छन्दों से अधिक संबंध है, किंतु प्राकृतपैंगलम् में संस्कृत छन्दःपरम्परा के वणिक छंदों के लक्षण में भी मात्रिक गणों का ही संकेत मिलता है। मात्रिक गण सर्वप्रथम द्विमात्रिक, त्रिमात्रिक, चतुर्मात्रिक, पञ्चमात्रिक एवं षण्मात्रिक भेदों में विभक्त हैं ।।।
इनके क्रमश: दो, तीन, पाँच, आठ और तेरह भेद होते हैं, जो छन्दःशास्त्र में विविध परिभाषिक नामों से अभिहित किये जाते हैं। प्राकृतपैगलम् में इन गणप्रस्तारों के नाम प्रथम परिच्छेद के पन्द्रहवें छंद से बत्तीसवें छन्द तक दिये गये हैं और इन्हीं पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रयोग मात्रिक एवं वर्णिक दोनों तरह के छंदो के लक्षणों में मिलता है। वर्णिक गण आठ है, जिनकी रचना व्यक्षर-समूह के विविध प्रकारों के अनुसार की जाती है। जैसे, त्रिगुरु मगण (555), त्रिलघु नगण (IN), आदिलघु यगण (155), आदिगुरु भगण (SI), मध्यगुरु जगण (151), मध्यलघु रगण (SIS), अंतगुरु सगण (15), अंतलघु तगण (55) । इन्हीं गणों की विविध प्रक्रिया के आधार किसी नियतसंख्यक छन्द के अनेक प्रस्तार होते हैं।
१६०. प्राकृतपैगलम् में केवल उन्हीं प्रसिद्ध वर्णिक छंदों का उल्लेख मिलता है, जो भट्ट कवियों द्वारा प्रयुक्त होते रहते हैं । वंशस्थ, रुचिरा, प्रहर्षिणी, मंदाक्रांता, हरिणी, शिखरिणी जैसे अनेक प्रसिद्ध संस्कृत छंद यहाँ नहीं मिलते। साथ ही पुष्पिताग्रा, वियोगिनी, उद्गता जैसे विषम वर्णिक छंदों का भी यहाँ कोई संकेत नहीं है । वर्णिक छंदों के विषय में यहाँ कोई मौलिक उद्भावना या ऐतिहासिक अथवा साहित्यिक महत्त्व का तथ्य नहीं मिलता । संस्कृत छन्दों के लक्षणों १. दे० केशवकौमुदी १.४४. २. उत्त अइउत्त मज्झा पइट्ठ सुपइट्ठ तहय गाइत्ती ।
उण्ही अणुहुभ विहई पंती तिहुउ जगइ अइजगई ।। सक्करि अइसक्करिया अट्ठी अइअट्टि धिइअ अइधिइउ ।।
किइ पाविसमभिउप्परकिई य जाईण नामाई ॥ (कविदर्पण ३.४-५) ३. छन्दार्णव (भिखारीदास ग्रंथावली, प्रथम खंड) पृ० २३६. (ना० प्र० सभा, काशी से प्रकाशित २०१३ वि०). ४. प्राकृतपैंगलम् १.१२.
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