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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र
५६१ का सबसे पहला प्रभाव इसके संग्रहकाल के लगभग ७५ वर्ष बाद रचित दामोदर के 'वाणीभूषण' में दिखाई पड़ता है, जो 'प्राकृतपैंगलम्' की ही पद्धति पर मात्रिक छंदों और वर्णिक वृत्तों का विवरण प्रस्तुत करता है। प्राकृतपैंगलम् के 'झुल्लणा' जैसे एक आध मात्रिक छंदों को 'वाणीभूषण' में छोड दिया गया है, पर अधिकांश छन्दों के विवरण का कम 'प्राकृतगलम्' के अनुसार ही है। हम बता चुके हैं कि दामोदर प्राकृतपैंगलम् के उपलब्ध प्राचीनतम टीकाकार रविकर के निकटतम संबंधी थे और मिथिला के राजा कीर्तिसिंह के आश्रित कवि थे। पुरानी हिंदी की भाट्ट छन्द:परंपरा का संस्कृत पंडितों को परिचय देने के लिये ही उक्त ग्रंथ लिखा गया था । इस बात का संकेत स्वयं दामोदर ने किया है। आगे तत्तत् मात्रिक छंद के लक्षणोदाहरण के संबंध में प्रस्तुत तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होगा कि दामोदर ने प्राकृतपैंगलम् के लक्षणों को देखकर ही छंदों के लक्षण निबद्ध किये हैं। साथ ही अनेक ऐसे छंद जो ऐतिहासिक दृष्टि से सर्व प्रथम इस रूप और नाम से प्राकृतपैंगलम् में ही मिलते हैं, उसके ठीक बाद किसी कृति में मिलते हैं, तो वह वाणीभूषण ही है। इन छंदों में मधुभार, दीपक, आभीर, हाकलि, सिंहावलोक, प्लवंगम, गंधानक (गंधाण), हीर, गगनांक, मात्रिक झुल्लणा, चौबाला, चौपैया, मरहट्टा, दंडकल, दुर्मिला, त्रिभंगी, जलहरण, लीलावती, मदनगृह जैसे छन्द है । ये छन्द प्राकृतगलम् के कुछ ही बाद की रचना, नागपुर (नागौर) राजस्थान के तपागच्छीय जैन साधु रत्नशेखर के 'छन्दःकोश' में नहीं मिलते; किन्तु वाणीभूषण में नाम-रूप में ज्यों के त्यों मौजूद है । इसके बाद तो प्राकृतपैंगलम् की छन्दःपरम्परा अपने वास्तविक रूप में मध्ययुगीन हिंदी, गुजराती, मराठी काव्यपरम्परा में भी मिलती है। प्राकृतपैंगलम् के समय तक पुराने हिंदी कवियों के यहाँ घनाक्षरी जैसा मुक्तक वर्णिक वृत्त नहीं आ पाया था, अन्यथा उसका उल्लेख यहाँ जरूर मिलता । 'वाणीभूषण' के समय तक भी घनाक्षरी का प्रयोग कवियों के यहाँ नहीं होने लगा था, क्योंकि दामोदर भी इसका कोई संकेत नहीं करते और न दामोदर के समसामयिक, पुराने हिंदी कवि विद्यापति ही अपनी देशी रचना 'कीर्तिलता' में इस छन्द का प्रयोग करते हैं। किंतु इस समय तक कई मूल मात्रिक छन्दों का वर्णिक छन्दों के रूप में कायाकल्प हो चुका था और चर्चरी, गीता, सुंदरी, दुर्मिला, किरीट, त्रिभंगी जैसे छंद जो वस्तुतः संस्कृत वर्णिक वृत्त नहीं है, वर्णिक वृत्तों के प्रकरण में स्थान पा चुके थे । इन छन्दों को प्राकृतपैंगलम् और वाणीभूषण दोनों ही वर्णिक वृत्तों में ही स्थान देते हैं। हम यथावसर इन छन्दों के मूल उत्स, विकास और कायाकल्प का संकेत करेंगे।
मध्ययुगीन साहित्य में प्राकृतपैंगलम् के महत्त्व का सहज अनुमान इसी से लग सकता है कि बंगाल से गुजरात तक और दक्षिण में महाराष्ट्र तक इस ग्रन्थ का प्रचार रहा है। इसके प्रचार ने ही स्वयंभू, हेमचन्द्र, राजशेखर सूरि आदि जैन छन्दःशास्त्रियों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को मध्ययुग में एक प्रकार से अपरिचित बना दिया और अर्जुन, गोसल (गुल्ह) जैसे अनेक अपभ्रंश छन्दःशास्त्रियों के ग्रन्थों का आज भी पता नहीं है। मध्ययुगीन हिंदी, बँगला, गुजराती और मराठी कवियों के लिये प्राकृतपैंगलम् छन्दोज्ञान का महत्त्वपूर्ण साधन था । इस ग्रंथ के हस्तलेख इन सभी भाषाभाषी प्रदेशों में मिले हैं। १७वीं शताब्दी में यह ग्रन्थ मध्यदेश में ही नहीं, बंगाल में भी, काफी लोकप्रिय था और इस शताब्दी में इस पर बंगाली पंडितों द्वारा संस्कृत टीकायें लिखी जाने लगी थी। मध्ययुगीन हिंदी कवियों के लिये तो यह आकर ग्रन्थ था । जैन कवि राजमल्ल और केशवदास (दोनों मुगल सम्राट अकबर के समसामयिक हैं) को प्राकृतपैंगलम् का पता ही नहीं था, वे इससे काफी प्रभावित जान पड़ते हैं । राजमल्ल के अनेक लक्षणों में प्राकृतपैंगलम् के ही लक्षणों की छाया है । केशवदास के लक्षण भी भी प्राकृतपैंगलम् के ही ढंग पर है, और भूमिका-भाग के कुछ पद्य तो जैसे प्राकृतपैंगलम् से ही अनूदित है। उदाहरणार्थ, निम्न पद्यों को लीजिये ।
जम ण सहइ कणअतुला, तिल तुलिअं अद्धअद्धेण । तम ण सहइ सवणतुला, अवछंद छंदभंगेण ॥ (प्रा० पैं० १.१०) कनकतुला जो सहत नहि तोलत अधतिल अंग । श्रवनतुला तें जानियो 'के सव' छंदोभंग ॥ (छन्दमाला २.७)
१. दे० प्रस्तुत अनुशीलन ६ ६ पृ० १६-१७ २. अलसधियःप्राकृतमधि सुधियः केचिद्भवन्तीह ।
कृतिरेषा मम तेषामातनुतादीषदपि तोषम् ॥ - वाणीभूषण १.३.
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