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प्राकृतपैंगलम्
न था, तथा पिंगल के नाम से उद्धृत पद्यों का स्रोत प्रा० पैं० न होकर भिन्न है, किंतु इतने भर प्रा० पै० के नाम से संगृहीत लक्षणोदाहरणों का संग्रह परवर्ती तो सिद्ध नहीं हो पाता । वस्तुतः छन्दोलक्षणों को पिंगल के नाम से चला देने की परिपाटी तो बड़ी पुरानी है और यह 'छाप' ही नहीं, हमारे विवेच्य ग्रंथ 'प्राकृतपैंगलम्' का नामकरण तक इसी परिपाटी की देन है ।
प्रा० पैं० में ४० मात्रा छंदों का वर्णन किया गया है, किंतु छन्दः कोश में सिर्फ ३० ही शुद्ध मात्रा छंद मिलते हैं। छन्द: कोश के नवीन मात्रा छंद निम्न है
:
(१) विजयक ( प्रत्येक चरण ८ मात्रा, चतुष्पदी)
(२) एकावली (प्रत्येक चरण १० मात्रा, ५+५, पाँचवी - छठी मात्रा के स्थान में दीर्घ अक्षर के निषेध, चतुष्पदी) (३) लघुचतुष्पदी (प्रत्येक चरण १५ मात्रा, अंतिम पाँच मात्रा पंचमात्रिक गण की हों, चतुष्पदी)
(४) चतुष्पदी ( ३० मात्रा, ७x४ + २, चतुष्पदी; किंतु यह प्राकृतपैंगलम् के चौपइया (१.९७) से भिन्न छंद है) (५) कामिनीमोहन ( २० मात्रा ८ दीर्घ, शेष ह्रस्व अक्षर, चतुष्पदी)
(६) मालती (१६ मात्रा, केवल त्रिमात्रिक तथा पंचमात्रिक गण हों, चतुर्मात्रिक गण का निषेध, चतुष्पदी) (७) मडिला (१६ मात्रा, अडिला का भेद जब प्रथम द्वितीय गण हों, चतुर्मात्रिक गण का निषेध, चतुष्पदी) (८) आभाणक ( २१ मात्रा, पंचमात्रिक गण का निषेध, अंतिम मात्रा लघु अक्षर की हो, चतुष्पदी)
(९) दंडक (३२ मात्रा, ८x४ आठ चतुर्मात्रिक, चतुष्पदी, चतुर्मात्रिक प्रायः 'पयोधर' (ISI) होते हैं) (१०) वेरालु (३/४ दोहा + १/४ ( गाथा का चतुर्थ चरण) (११) चूड़ामणि ( १ / २ दोहा (पूर्वार्ध) + १ / २ गाथा (उत्तरार्ध) ) २ (१२) उपचूलिका (दोहा की प्रत्येक अर्धाली में १० मात्रा अधिक) (१३) उद्गाथक (? उद्दोहक) (विषम चरणों में दोहा में २ मात्रा अधिक)
(१४) बेसर (प्रथम - द्वितीय चरण १६ मात्रा, तृतीय- चतुर्थ चरण १५ मात्रा ) ३
रत्नशेखर ने निम्न संकीर्ण या मिश्रित छंदों का प्रा० पैं० से अधिक संकेत किया है :
(१) चन्द्रायणा ( दोहा + कामिनीमोहन) (३९)
(२) रासाकुलक (आभाणक + अल्लाल) (२९)
प्रा० पैं० के मात्रिक वृत्तों का ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते समय हम शेष मात्रिक छंदों पर प्रकाश डालेंगे ।
प्राकृतपैंगलम् और हिंदी छन्दः शास्त्र
$ १५६. प्राकृतपैंगलम् की स्थिति एक ऐसे संधिस्थल पर है, जहाँ एक ओर अपभ्रंश साहित्य की परम्परा समाप्त होने के साथ ही हिंदी साहित्य की परंपरा का उदय स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है। इस तरह प्राकृतपैंगलम् दोनों भाषाओं की साहित्यिक तथा छन्दः शास्त्रीय परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। यह वह कड़ी है, जो स्पष्टतः मध्ययुगीन हिंदी छन्दःपरम्परा को अपभ्रंश की छन्दः परम्परा के साथ जोड़ कर भारतीय छन्दः शास्त्र की अखण्ड परम्परा के निर्वाह में महत्त्वपूर्ण योग देती है । जहाँ तक मध्ययुगीन हिंदी छन्दः परम्परा को प्राकृतपैंगलम् की देन का प्रश्न है, हम देखेंगे कि हिंदी के कई पुराने छन्दोग्रन्थकार 'प्राकृतपैंगलम्' से साक्षात् रूप से या केदार भट्ट के 'वृत्तरत्नाकर' एवं दामोदर के 'वाणीभूषण' के माध्यम से जो दोनों ग्रंथ खुद प्रा० पैं० से प्रभावित जान पड़ते हैं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं । प्राकृतपैंगलम्
१. दोहा छंद तिनिपय, पढमई सुद्ध पढेहु ।
पुणवि चउत्थइ गाहपउ, वेरालु वि तं वियाणेहु ॥ - छन्द: कोश ३३. २. पुव्वद्धउ पढि दोहडउ, पच्चद्धउ गाहाण |
चूडामणि जाणिज्जहु मज्झे सयलाण छंदाण ॥ - वही ४८.
३. बिबि पय सोलस मत्त कहिज्जइ । पंचदहं पुण बेबि रइज्जइ || बासठि मत्तह जासु पमाणु । सो छंदउ फुडु बेसरु जाणु ॥ -
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वही २०.
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