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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र
के नाम से संकेतित लक्षण पद्यों के अलावा और पद्य भी यहाँ ऐसे हैं, जो रत्नशेखर की कृति नहीं जान पड़ते । ये लक्षण पद्य थोड़े हेर फेर से या ज्यों के त्यों प्रा० पैं० में भी मिलते हैं । यथा छप्पय छंद के प्रकरण में रत्नशेखर का लक्षण पद्य (१२) प्रा० पैं० के लक्षण पद्य (१.१०७) से हूबहू मिलता है। प्रा० पैं० में रत्नशेखरवाले 'गुल्ह कवि एरस वुत्तउ' पाठ को बदलकर 'सेसकवि वत्थु णिवुत्तउ' कर दिया गया है । मैंने अनुशीलन में इस बात का संकेत किया है कि प्रा० पैं. के पद्य संख्या १.१०७ तथा १.१०८ बाद के प्रक्षेप हैं, तथा इन प्रक्षेपांशों का समय मिथिला के राजा हरिसिंहदेव का राज्य-काल है। प्रक्षेप्ता संभवत: हरिब्रह्म है। इस लक्षणपद्य के उभयत्र मिलने से यह पुष्ट होता है कि प्रा० पैं० के वास्तविक संग्राहक का दिया गया छप्पय लक्षण १.१०५ है, तथा उदाहरण पद्य १.१०६ तथा इसके रूपान्तर के समय 'गुल्ह' वाला उक्त छप्पयलक्षण 'सेसकवि' की छाप देकर बाद में जोड़ दिया गया है। यह लक्षण पद्य रूपान्तर के समय गुल्ह के अनुपलब्ध छन्दोग्रंथ से लिया गया था, या रत्नशेखर के 'छन्दःकोश' से, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । अनुमान होता है, संभवत: यह पद्य गुल्ह से ही लिया गया हो, 'छन्दःकोश' से नहीं । डा० वेलणकर प्रा० पैं० को रत्नशेखर के 'छन्दःकोश' से प्रभावित मानते हैं तथा उसे परवर्ती रचना घोषित करते हैं। उन्होंने 'छन्दःकोश' का समय १४वीं शती का अंत माना है, क्योंकि इसके रचयिता, वज्रसेन के शिष्य तथा हेमतिलकसूरि के पट्टाधिकारी, नागपुरीय तपागच्छ के जैन साधु रत्नशेखर का जन्म पट्टावली के अनुसार १३१५ ई० (१३७२ वि०) है। प्रा० पैं० को परवर्ती रचना मानना हमें अभीष्ट नहीं । हम अन्त:साक्ष्य तथा बहिःसाक्ष्य के आधार पर बता चुके हैं कि प्रा० पैं० को चौदहवीं सदी ईसवी के प्रथम चरण (१३०१-१३२५) से बाद की कृति कथमपि नहीं माना जा सकता । रत्नशेखर को भले ही प्रा० पैं. के संग्रह का पता न हो, किंतु रत्नशेखर का 'छन्दःकोश' निश्चित रूप से परवर्ती रचना है तथा गुल्ह वाला छप्पय लक्षण प्रा० पैं० (१.१०७) को 'छन्दःकोश' की देन नहीं जान पड़ता, बल्कि साक्षात् गुल्ह से या किसी अन्य स्रोत से लिया गया है। इस बात का संकेत स्वयं वेलणकर ने भी किया है कि मूल प्रा० पै० में यह लक्षणपद्य (१.१०७) नहीं था । इस लक्षणपद्य के अतिरिक्त छन्दःकोश (१६) तथा प्रा० पैं० (२.२०८) वाला डुमिला (दुर्मिला) का लक्षण भी हूबहू मिलता है। यह भी दोनों जगह कहीं से लिया गया है। इसी तरह छन्द:कोश (२५) तथा प्रा० पैं० (१.१७०) वाला सोरठालक्षण; तथा छन्दःकोश (३१) तथा प्रा० पैं० (१४६) वाला कुंडलियालक्षण भी मिलते हैं । छन्दःकोश में इन दोनों पद्यों में कोई छाप नहीं मिलती, प्र० पैं० में "पिंगल नागराज' की छाप दी गई है। इसी तरह छन्दःकोश (४६) तथा प्रा० पैं० (२.६९) और छन्दःकोश (५०) तथा प्रा० पैं० (१.१४४) के नाराच तथा पद्मावती छंदों के लक्षणपद्य भी क्रमशः हूबहू मिलते हैं । स्पष्ट है कि ये सभी लक्षणपद्य दोनों जगह किसी अन्य स्रोत की देन हैं।
डा० वेलणकर ने प्रा० पैं० को परवर्ती रचना मानने का खास प्रमाण यह माना है कि 'पिंगल' के नाम से 'रत्नशेखर' के ग्रंथ में उपलब्ध कुछ लक्षणपद्य प्रा० पैं० में भिन्न रूप से है; जैसे पद्य ४ का सोमकांत छंद; जिसे प्रा० पैं० में यह नाम न देकर विद्युन्माला नाम दिया गया है; पद्य ४५ का हक्का छंद, जिसे प्रा० पैं० में यह नाम न देकर विद्युन्माला नाम दिया है; पद्य ४५ का हक्का छंद, जहाँ ३० मात्राएँ (१०, ८, १२) प्रत्येक चरण में पाई जाती है, जिसे प्रा० पै० में हक्का छंद न कह कर चउपइया (चतुष्पदी) (प्रा० पैं० १.९७) कहा गया है। अत: ऐसा अनुमान किया गया है कि पिंगल का यह ग्रंथ रत्नशेखर को अज्ञात था । इस अंश को तो हम भी मानते हैं कि रत्नशेखर को संभवत: प्रा० पैं० का पता
१. दे० अनुशीलन ५ (ऊ), पृ०. १५ २. Both appear to have been composed towards the close of the 14th century A.D., but the cchandahkosa
is perhaps the earlier of the two. - Velankar : Apabhramsa Metres I. (J.U.B. NOV. 1933, p. 34) ३. Ibid p. 53. ४. नायाणं ईसेणं उत्तो, सव्वेहिं दीहेहिं युक्तो।
ममंगंगं पाठिज्जतो, एसो छंदो सोमक्कतो || - छन्दःकोश ४. ससिमत्तपछिउ अंसगरिढुउ मुत्तिउ अग्गलि जासु, जणबंधहं सारी सव्वपियारी निम्न लक्खण तासु । जणु पंडिउ बुज्झइ तासु न सुज्झइ हक्क विमाणउ तेओ (भेओ), सुवि जंपिवि नत्तहं चिंतवयंतहं भासइ पिंगल एओ ॥ - छन्दःकोश ४५.
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