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प्राकृतपैंगलम्
छंदों को चुना गया है, वे सिर्फ जैन आगमों में उपलब्ध छंद ही हैं; इस तथ्य से यह पता चलता है कि लेखक अधिक प्राचीन रहा है। हेमचन्द्र के छन्दोनुशासन में इस ग्रन्थ के पद्य ४०-४२ उद्धृत मिलते हैं, यद्यपि हेमचन्द्र ने ग्रंथ तथा लेखक का संकेत नहीं किया है । नंदिताढ्य के ग्रंथ से इस बात का पता चलता है कि उसके समय तक प्राकृत अधिक आहेत थी तथा अपभ्रंश को हेय दृष्टि से देखा जाता था । लेखक ने बताया है कि 'जैसे वेश्याओं के हृदय में स्नेह नहीं होता, कामुकजन के यहाँ सत्य नाम की चीज नहीं होती, वैसे ही नंदिताढ्य की प्राकृत में 'जिह, किह, तिह, जैसे शब्दों की छौंक न मिलेगी। इससे इतना संकेत मिलता है कि नंदीताढ्य के समय तक 'जिह, किह, तिह,' जैसे शब्द, जो निश्चित रूप से अपभ्रंश रूप है, साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा में अशुद्ध प्रयोग माने जाते थे । स्पष्ट है, नंदिताढ्य के समय तक अपभ्रंश को पंडित-मंडली में साहित्यिक मान्यता न मिल पाई थी। इसी आधार पर डा० वेलणकर ने अनुमान किया है कि 'गाथालक्षण' का रचयिता ईसा की आरंभिक शताब्दियों में था ।२
नंदिताढ्यने अपने ग्रन्थ में 'गाथा' छंद का लक्षण निबद्ध करने की प्रस्तावना की है, किंतु गाथा वर्ग के छंदों के अतिरिक्त पद्धडिया, चंद्रानना (मदनावतार), द्विपदी, वस्तुक, सार्धच्छन्द, दूहा, उवदूहा (उपदोहा) तथा सिलोय (अनुष्टुप) छंदों का भी वर्णन किया है। इस प्रकार 'गाथालक्षण' में संस्कृत छन्दःपरम्परा का केवल एक ही वर्णिक छंद संकेतित है - सिलोय (श्लोक), जो प्राकृत-अपभ्रंश के कवियों के द्वारा भी प्रयुक्त होता रहा है। गाथा-वर्ग के शुद्ध प्राकृत छंदों - गाथा, गाथ, विगाथा, उद्गाथा, गाथिनी तथा स्कन्धक - के अतिरिक्त अन्य ७ छंद अपभ्रंश वर्ग के तालच्छंद है। इस प्रकार 'गाथालक्षण' में कुल १४ छंदों का ही वर्णन किया गया है । ग्रंथ में 'गाथा' के विविध भेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
नंदिताढ्य का प्रमुख लक्ष्य गाथा-वर्ग के विविध छंदों का विस्तार से वर्णन करना है। आरंभ में लगभग ५७ छंदों (६-६२), गाथा छंद के ही विविध भेदों का संकेत किया गया है। 'गाथा' छंद के लक्षण में नंदिताढ्य ने 'मात्रागणों' को नियत स्थिति का संकेत करते हुए बताया है कि यहाँ सोलह अंश होते हैं, प्रथम १३ चतुर्मात्रिक, तदनंतर दो द्विमात्रिक, । तब एकमात्रिक । इस प्रकार गाथा की गणप्रक्रिया यों है : - १३ x ४ + २४ २ + १ = ५७।५ गाथा प्रकरण में यह भी बताया गया है कि यहाँ विषम गणों में मध्यगुरु चतुर्मात्रिक (ISI) (अर्थात् जगण) प्रयुक्त नहीं होता तथा २१वीं, २४वीं तथा ५१ वी मात्रा लघु हों। गाथा के द्वितीया का छठा गण केवल एकमात्रिक ही होता है। नंदिताढ्य के कई गाथासंबंधी लक्षणपद्य प्राकृतपैंगलम् में हूबहू मिलते हैं। गाथासामान्य के लक्षण के बाद इसके पथ्या, विपुल, सर्वचपला, मुखचपला, जघनचपला, गीति, उद्गीति, उपगीति तथा संकीर्णा भेदों का विवरण दिया गया है। तदनंतर इसके विप्रा, क्षत्रिया, जैसे जातिगत भेद कर तब विस्तार से गाथा की भेदगणना की प्रक्रिया का संकेत किया गया है। इसी प्रसंग में विकल्प से दीर्घ अक्षरों को कहाँ लघु माना जाय इसका उल्लेख ७ छंदों (५६-६२) में किया गया है। तदनंतर गाथा-वर्ग के अन्य ६ छंदों का एक-एक कर लक्षणोदाहरण दिया गया है। अपभ्रंश छंदों में वर्णित पहला छंद पद्धडिया है ।
सोलसमत्तउ जहिं पउ दीसइ । अक्खरमत्तु न किंपि गवीसइ ।
पायउ पायउ जमक विसुद्धउ । पद्धडिय तहिं छंद पसिद्धउ ।। (७६) (जहाँ चरण में १६ मात्रा दिखाई दें, अक्षरों की गणना की गवेषणा कुछ न हो, प्रत्येक चरण में यमक हो, वहाँ प्रसिद्ध छंद पद्धडिया होता है।)
स्वयम्भू या हेमचंद्र की भाँति नंदिताढ्यने भी दोहा छंद की मात्रा-गणना १४, १२ : १४, १२ मानी है, अर्थात् पादांत ह्रस्व की गणना गुरु की है। वस्तुक या काव्य (रोला) छंद के अंतर्गत नंदिताढ्य केवल २४ मात्रिक चरणों की
१. जह वेसाजण नेहो, जह सच्चं नत्थि कामुयजणस्स ।
तह नंदियड्डभणिए जिह किह तिह पाइए नत्थि ॥ - गाथालक्षण पद्य ३१ २. Velankar : Gathalakshana of Nanditaddhya, (Intro.)-Annals of B.O.R.I. (1932-33) Vol. XII. p. 16 ३. वही गाथा ७
४.५.६. वही गाथा ८-९-१० ७. चउदहमत्ता दुनि पय, पढमइ तइयइ हुंति ।
बारहमत्ता दो चलण, दूहालक्खण कंति ॥ - वही ८४
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