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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र
५४५ प्राकृत तथा अपभ्रंश छन्दःशास्त्र
१४७. संस्कृत वर्णिक वृत्तों से संबद्ध प्रमुख छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों का विवरण दिया जा चुका है, जिन्होंने प्राकृत के कतिपय छन्दों को भी आर्या-परिवार के मात्रिक वृत्तों के रूप में अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है। किंतु आर्या-परिवार के छन्दों के अतिरिक्त मध्यकालीन भारतीय साहित्य में दो प्रकार की अन्य छन्दः परम्परायें भी प्रचलित रही हैं, जिन्हें क्रमशः मात्राछंदों की परम्परा तथा तालच्छंदों की परम्परा कहा जाता है । इनमें 'तालच्छंदों' की परम्परा का मूलस्रोत देश्य गेय पद है, तथा उनका मूल तात्कालिक लोकगीतों में ढूँढना पड़ेगा । ये 'तालच्छंद' अपभ्रंशकाल में आकर साहित्यिक मान्यता प्राप्त कर चुके हैं, तथा इनका प्राचीनतम साहित्यिक उपयोग विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक में उपलब्ध अपभ्रंश पद्यों में पाया जाता है, जहाँ सबसे पहले हमें भारतीय कविता में छन्दों में तुक का नियत प्रयोग मिलने लगता है । ये छन्द एक तीसरी ही छन्दः परम्परा का संकेत करते हैं । हेमचन्द्र तक इस परम्परा का विशाल आलवाल परिलक्षित होता है, तथा हेमचन्द्र ने अपभ्रंश छंदों के विविध आयामों का विस्तार से वर्णन किया है। अपभ्रंश छंदों की दो परम्पराएं प्रचलित हैं, एक परम्परा का संकेत हमें स्वयम्भू, हेमचन्द्र आदि के ग्रन्थों में मिलता है, दूसरी परम्परा का व्यवहार राज-घरानों के बंदीजनों की कविताओं में रहा जान पड़ता है, जिसका हवाला 'प्राकृतपैंगलम्' तथा रत्लशेखर का 'छन्द:कोश' देते हैं । इनको हम क्रमशः अपभ्रंश छंदों की (१) शास्त्रीय परम्परा, तथा (२) भट्ट परम्परा (या मागध परम्परा) कहना ठीक समझते हैं। इन दोनों परम्पराओं के छंदोग्रन्थ हमें उपलब्ध हैं, तथा इस गवेषणा का अधिकांश श्रेय डा० एच० डी० वेलणकर को है, जिन्होंने 'प्राकृतपैंगलम्' के अतिरिक्त अन्य सभी एतत्संबन्धी ग्रन्थों को अन्धकार से निकालकर प्रकाश दिया है। इतना ही नहीं, अपभ्रंश छंदों पर सर्व प्रथम मार्ग-दर्शन भी हमं डा० वेलणकर के गवेषणापूर्ण लेखों में ही उपलब्ध होता है । प्राकृत तथा अपभ्रंश से सम्बद्ध छंदःशास्त्र के ८ ग्रन्थ अब तक प्रकाश में आ चुके हैं। ये ग्रन्थ निम्न हैं :
(१) नंदिताढ्य (नंदियड्ड) का 'गाथालक्षण' (डा० वेलणकर द्वारा एनाल्स आव् भंडारकर ऑरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, १९३३ में प्रकाशित)।
(२) विरहाङ्क का 'वृत्तजातिसमुच्चय' (डा० वेलणकर द्वारा बॉम्बे ब्रांच आव् रॉयल एशियाटिक सोसायटी के १९२९, १९३२ के जर्नल में प्रकाशित) ।
(३) स्वयम्भू का 'स्वयम्भूच्छन्दस्' (उन्हीं के द्वारा बॉ० ब्रा० रा० ए० सी० के जर्नल १९३५ में (परिच्छेद १-३) तथा बॉम्बे यूनिवर्सिटी जर्नल नवंबर १९३६ में (परिच्छेद ४-९) (प्रकाशित)
(४) राजशेखर का 'छन्दःशेखर' (उन्हीं के द्वारा बॉ० ब्रा० रा० ए० सो० के जर्नल १९४६ में प्रकाशित)
(५) हेमचन्द्र का 'छन्दोनुशासन' (परिच्छेद ४-९) (उन्हीं के द्वारा बॉ० ब्रा० रा० ए० सो० के जर्नल १९४३४४ में प्रकाशित)
(६) अज्ञात लेखक का 'कविदर्पण' (भंडारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट के एनाल्स में उन्हीं के द्वारा १९३५ में प्रकाशित) (७) प्राकृतपैंगलम् (८) रत्नशेखरका 'छन्द:कोश' (उन्हीं के द्वारा बॉम्बे यूनिवर्सिटी जर्नल नवंबर १९३३ में प्रकाशित)
उक्त तालिका इन ग्रन्थों के रचनाकाल की दृष्टि से दी गई है। इस दृष्टि से नंदियड्ड का 'गाथालक्षण' प्राचीनतम रचना है, जब कि 'रत्नशेखर' का 'छन्द:कोश' प्राकृतपैंगलम् के संग्रह के भी बाद की रचना है। वैसे इस संबंध में हम भरत के नाट्यशास्त्र का भी संकेत कर सकते हैं, जहाँ ३२ वें अध्याय में उन्होंने कतिपय प्राकृत छंदों का विवेचन किया है। किंतु जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं, भरत के ये छन्द वस्तुतः अक्षरगण वाले वर्णिक वृत्त ही हैं, तथा उनका वर्णन भी उन्होंने अनुष्टुप्, त्रिष्टुप्, जगती आदि के तत्तत् भेदों के रूप में ही किया है । यहाँ हम संक्षेप में उक्त ग्रन्थों का विवरण दे रहे हैं । (१) नंदिताढ्य का 'गाथालक्षण'
१४८. नंदियड्ड या नंदिताढ्य का 'गाथालक्षण' उपलब्ध प्राकृतापभ्रंश के छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में प्राचीनतम है। लेखक का विशेष परिचय नहीं मिलता, किंतु ग्रंथ के मंगलाचरण से पता चलता है कि लेखक जैन है। डा० वेलणकर
का अनुमान है कि नंदिताढ्य नाम प्राचीन जैन यति-परंपरा का संकेत करता है तथा लेखक के द्वारा इस ग्रंथ में जिन Jain Education International
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