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प्राकृतपैंगलम्
'न न म य य युतेयं मालिनी भोगिलोकैः' (न न म य य, ८/७) 'रसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी' (य य न स भ ल ग, ६/११). 'मन्दाक्रान्ताम्बुधिरसनगैर्माभना तौ गयुग्मम्' (म भ न त त ग ग, ४/६/७). 'सूर्याश्वैर्यदिमः सजौ सततगाः शार्दूलविक्रीडितम्' (म स ज स त त ग, १२७)
(३) लघु-गुरु-निर्देश-पद्धति - इस लक्षण पद्धति में किस छंद में कौन कौन अक्षर लघु होंगे, अथवा कौन कौन गुरु इसका संकेत करते हुए तथा यतिविधान बताते हुए, कभी तो भिन्न छंद में या कभी उसी छंद में लक्षण निबद्ध किया जाता है । भरत ने नाट्यशास्त्र में छन्दों का लक्षण अनुष्टुप् में निबद्ध करते समय यही पद्धति अपनाई है। जैसे
'चतुर्थमन्त्यं दशमं सप्तमं च यदा गुरु ।
भवेद्धि जागते पादे तदा स्याद्धरिणीप्लुता ॥ (१६.४८) 'जहाँ जगती छंद के चरण (१२ वर्ण) में ४, ७, १० तथा १२ वें वर्ण गुरु हों, तो वह हरिणीप्लुता छंद होता है।'
‘पञ्चादौ पञ्चदशकं द्वादशैकादशे गुरु ।
चतुर्दशं तथाऽन्त्ये द्वे चित्रलेखा बुधैः स्मृता ।। (१६.८६) 'जहाँ पहले पाँच वर्ण, ग्यारहवाँ, बारहवाँ, चौदहवाँ, पन्द्रहवाँ तथा अन्तिम दो (सतरहवाँ और अठारहवाँ) वर्ण गुरु हो, वह चित्रलेखा छन्द है।'
___ यह चित्रलेखा मन्दाक्रान्ता का ही विस्तार है । मंदाक्रान्ता के पहले चार गुरु वर्णों की जगह पाँच गुरु वर्ण कर अठारह वर्णके छंद में ५, ६, ७ पर यति होते ही चित्रलेखा छंद बन जायगा । 'श्रुतबोध' ने भी इसी पद्धति को अपनाया है। कवि या छन्दःशास्त्री अपनी प्रिया को संबोधित कर लघु या गुरु वर्णों का संकेत करते हुए उसी छन्द में लक्षण निबद्ध करता है। छन्दःशास्त्रीय ग्रंथों में प्रिया को संबोधित कर छन्द का लक्षण कहने की पद्धति सबसे पहले 'श्रुतबोध में ही मिलती है। यह पद्धति विरहांक के 'वृत्तजातिसमुच्चय' तथा 'प्राकृतपैंगलम्' जैसे प्राकृताभ्रंश छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में भी मिलती है। 'श्रुतबोध' की लक्षणपद्धति का निदर्शन निम्न है :
"यस्यामशोकाङ्करपाणिपल्लवे वंशस्थपादा गुरुपूर्ववर्णकाः । तारुण्यहेलारतिरङ्गलालसे तामिन्द्रवंशां कवयः प्रचक्षते ॥
'यस्यां त्रिषट्सप्तममक्षरं स्याद् ह्रस्वं सुजंघे नवमं च तद्वत् ।
गत्या विलज्जीकृतहंसकान्ते तामिन्द्रवज्रां ब्रुवते कवीन्द्राः ॥" ४. द्विकलादि मात्रिक गणों के पारिभाषिक शब्दों वाली पद्धति-कुछ लक्षणकारों ने मात्रिक छंदों तथा वर्णिक वृत्तों के लक्षणों में एक ही पद्धति अपनाई है। वे द्विकलादि मात्रिक गणों के ही तत्तत् पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग वर्णिक वृत्तों के लक्षणों में भी करते हैं । वृत्तजातिसमुच्चय तथा प्रा० पैं० ने भी वर्णिक वृत्तों के लक्षणों में मगण, नगण, ल, ग जैसी वर्णिक गणों की पद्धति न अपनाकर कर्ण, करतल, पयोधर, योध, पदाति, तुरंग जैसे तत्तत् मात्रिक गणों का ही संकेत किया है । यही पद्धति दामोदर मिश्रने 'वाणीभूषण' के वर्णिक वृत्त प्रकरण में अपनाई है । जैसे,
"कर्णः कुण्डलसंगतः करतलं चामीकरणेनान्वितं, पादान्तो रवनूपुरेण कलितो हारौ प्रसूनोज्ज्जवलौ । गुर्वानन्दयुतो गुरुय॑ति भवेत्तन्नूनविंशाक्षरं
नागाधीश्वरपिंगलेन भणितं शार्दूलविक्रीडितम् ॥" (वाणीभूषण, वर्णवृत्त प्रकरण) इस लक्षण में कर्ण, कुण्डल, करतल, चामीकर, नूपुर, हार, प्रसून ये सब तत्तत् मात्रिक गण की पारिभाषिक शब्दावली है। इसी संबंध में इतना और संकेत कर दिया जाय कि इन मात्रिक गणों के लिये स्वयंभू तथा हेमचंद्र ने द, त, च, प, छ जैसे बीजगणितात्मक प्रतीकों का प्रयोग किया है, जो 'प्राकृतापभ्रंश छन्दःशास्त्र' के प्रसंग में द्रष्टव्य है।
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