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संस्कृत प्राकृतापभ्रंश और हिन्दी छन्दःशास्त्र
संस्कृत छन्दःशास्त्र
१४६. भारतीय छन्दःशास्त्र की परम्परा बड़ी पुरानी है। शौनकीय श्रौतसूत्र, निदानसूत्र, ऋक्-प्रातिशाख्य, तथा कात्यायनरचित ऋग्वेदानुक्रमणिका तथा यजुर्वेदानुक्रमणिका में वैदिक छन्दों का विवेचन पाया जाता है। वेद के छह अंगों में छन्दःशास्त्र का भी समावेश किया जाता है, तथा भारतीय छन्दःशास्त्र का प्राचीनतम ग्रन्थ 'पिंगल' के 'छन्द:सूत्र' हैं। डा० कीथ के मतानुसार 'पिंगल' के 'छन्दःसूत्र' निश्चितरूपेण भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' से पुराने हैं। पिंगल ने 'छन्दःसूत्रों' में बीजगणितात्मक (algebraic) पद्धति अपनाई है, यथा 'लघु' के लिये 'ल', 'Sss' (मगण) के लिये 'म' आदि । वर्णिक छन्दों में तीन तीन अक्षरों के तत्तत् वर्णिक गणों का विधान सर्वप्रथम यहीं मिलता है। भरत के नाट्यशास्त्र में भी छन्दों का विवेचन १५ तथा १६ वें अध्यायों में मिलता है। भरत के छन्दोविवेचन का आधार 'पिंगल' के 'छन्दःसूत्र' ही हैं, किन्तु भरत के लक्षण सूत्रों में न होकर अनुष्टप् में हैं, जो सम्भवतः भरत के स्वयं ही के हैं, इनके उदाहरण भरत ने विभिन्न स्रोतों से दिये होंगे । भरत के द्वारा दिये गये उदाहरणपद्यों में कई में छन्दोनाम के साथ मुद्रालंकार भी पाया जाता है । 'श्रुतबोध', जिसे महाकवि कालिदास की रचना माना जाता है, पुरानी कृति अवश्य जान पड़ता है, किंतु उसे कालिदास की कृति मानना संदिग्ध है। भरत के 'नाट्यशास्त्र' तथा 'श्रुतबोध' के लक्षण 'बीजगणितात्मक पद्धति' में न होकर किसी अमुक छंद के तत्तत् लघु या गुरु अक्षरों की स्थिति से सम्बन्ध रखते हैं । लक्षण की इन विभिन्न पद्धतियों का संकेत हम अनुपद में करने जा रहे हैं । वराहमिहिर की 'बृहत्संहिता' में भी एक अध्याय छन्दों पर मिलता है, जहाँ ग्रहों की गति के साथ-साथ छंदों का विवेचन पाया जाता है। कहा जाता है कि वररुचि, भामह तथा दण्डी ने भी छन्दःशास्त्र पर ग्रन्थ लिखे थे पर वे उपलब्ध नहीं है। मध्ययुगीन रचनाओं में सर्वप्रथण 'क्षेमेन्द्र' का 'सुवृत्ततिलक' है। यह ग्रन्थ तीन अध्यायों में विभक्त हैं। प्रथम अध्याय में छन्दों के लक्षण हैं तथा क्षेमेन्द्र ने स्वयं के ही उदाहरण दिये हैं। द्वितीय अध्याय में अनेक उदाहरण देते हुए छन्दोदोषों का संकेत किया गया है। तृतीय अध्याय में विविध विषयों, भावों, प्रसंगों में किन किन छन्दों का प्रयोग किया जाय, इसका संकेत करते हुए बताया गया है कि कुछ कवियों ने खास खास छंदों के प्रयोग में सिद्धहस्तता व्यक्त की है, यथा पाणिनि ने उपजाति के, कालिदास ने मंदाक्रान्ता के, भारवि ने वंशस्थ के, भवभूति ने शिखरिणी के, रत्नाकर ने वसन्ततिलका के। पिछले खेवे के संस्कृत छन्दःशास्त्रों में हेमचन्द्र का 'छन्दोनुशासन' (संस्कृत छन्दों वाला भाग) केदार भट्ट का 'वृत्तरत्नाकर' तथा गंगादास की 'छन्दोमंजरी' विशेष प्रसिद्ध हैं । दामोदर मिश्र का 'वाणीभूषण' भी संस्कृत का छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थ है, किंतु यह प्रा० पैं० का ही संस्कृत अनुवाद सा है, इसका संकेत किया जा चुका है। पिछली शती के अन्तिम दिनों में काशी के प्रसिद्ध कवि-पंडित श्रीदुःखभंजन कवि ने 'वाग्वल्लम' नामक छंदोग्रन्थ की रचना की है, जिसमें अनेक छंदों का विस्तृत विवरण है । संस्कृत छन्दःशास्त्र की लक्षण-पद्धतियाँ
__ संस्कृत के सभी छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों ने लक्षणों में एक ही पद्धति नहीं अपनाई है। पिंगल की पद्धति सूत्रबद्ध थी, जहाँ सूक्ष्म गद्यात्मक सूत्रों में तत्तत् छन्दों के लक्षण निबद्ध हैं, किन्तु बाद में लक्षण को और अधिक स्पष्ट करने की इच्छा तथा लक्षण के साथ साथ तत्तत् छंद के उदाहरण देने की प्रवृत्ति ने भिन्न भिन्न पद्धतियों को जन्म दिया है। इस तरह मोटे तौर पर संस्कृत छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में चार प्रणालियाँ मिलती है :
(१) गद्यात्मक सूत्रपद्धति - इस पद्धति में पिंगलसूत्र की रचना हुई है जिसमें 'म' आदि गण तथा ल (लघु) और 'ग' (गुरु) के संकेत द्वारा लक्षण निबद्ध किया गया है। जैसे वसन्ततिलका के इस लक्षण में - 'वसन्ततिलका त्भौ जौ गौ' (७.८) (त भ ज ज गा गा)।
(२) छन्द का उदाहरण देते हुए पद्यात्मक सूत्रपद्धति - इस पद्धति में तत्तत् छंद के एक चरण में ही सूत्रात्मक पद्धति से लक्षण निबद्ध किया जाता है । लक्षण में म, न, ल, ग जैसे बीजगणितात्मक प्रतीकों का प्रयोग कर, अंकों के विभिन्न पर्यायवाची शब्दों के द्वारा यति का भी संकेत किया जाता है। जैसे
१. Keith : A History of Sanskrit Literature. p.416
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