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प्राकृतपैंगलम्
कहत यशोदा सुनो मनमोहन अपने ताल की आज्ञा लेहु । बारो दीपक बहुत लाडिले कर उजियारो अपने गेहु || हँस ब्रजनाथ कहत माता सों धोरी धेनु सिंगारो जाय । 'परमानन्ददास' को ठाकुर जग भावत है निशि दिन गाय ॥ १
स्पष्ट है कि सोलहवीं शताब्दी में 'वीर छन्द प्रचलित था, भक्त कवियों के पदों में उसका प्रयोग किया जा रहा था, भले ही आल्हाकाव्य उस समय तक प्रसिद्ध न रहा हो या न रचा गया हो। सम्भवतः ढूँढ़े जाने पर तुलसी की विनयपत्रिका और गीतावली के पदों में भी कहीं 'वीर छन्द' नजर आ जाय मध्ययुगीन हिन्दी पद-साहित्य अनेक मात्रिक छन्दों के उत्स और विकास का संकेत कर सकता है, किन्तु यह स्वतन्त्र गवेषणा का विषय है; प्राकृतपैंगलम् के मात्रिक छन्दों के अनुशीलन के सम्बन्ध में इस बिन्दु का प्रसंगवश विवेचन कर दिया गया है। इस विषय का अधिक विवेचन यहाँ अप्रासंगिक ही होगा ।
१. परमानन्ददास : वर्षोत्सवकीर्तनसंग्रह भाग २ पृ. ९ ।
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