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________________ ५४१ संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःपरम्परा कनक-रतन मय पालनो, रच्यो मनहुँ मार सुतहार । बिबिध खेलौना किंकिनी, लागे मंजुल मुकुताहार ॥ रघुकुल-मंडन राम लला ॥१॥ जननि उबटि अन्हवाइकै, मनिभूषन सजि लिये गोद । पौढाए पटु पालने, सिसु निरखि मगन मन मोद ।। दसरथनंदन राम लला ||२|| मात्रिक सवैया के अंतरे सूरके निम्न पद (राग सूही) में देखे जा सकते हैं, जहाँ १६, १६ मात्रा के दो यतिखंडों में प्रत्येक पंक्ति को बाँटा गया है। प्रात समय आवत हरि राजत । रतन-जटित कुंडल सखि स्रवननि, तिनकी किरनि-पूर-तनु लाजत । सातै रासि मेलि द्वादस मैं, कटि मेखला-अलंकृत साजत । पृथ्वी-मथी पिता सो लै कर, मुख समीप मुरली-धुनि बाजत । जलधि-तात तिहिं नाम कंट के, तिनकैं पंख मुकुट सिर भ्राजत ॥ सूरदास कहै सुनहु गूढ हरि, भगतनि भजत अभगतनि भाजत ॥ 'घनाक्षरी' का विवेचन करते समय हम आगे बतायँगे कि सूर और तुलसी के पदों में घनाक्षरी छन्द के अनेक अंतरे मिलते हैं। कहीं कहीं तो इन अंतरों के किसी चरण में पूरे ३१ वर्ण है, उसके अन्य संबद्ध चरण में २८, २९ या ३० वर्ण मिलते हैं, किंतु उनका प्रवाह एक सा है । कई स्थानों पर सम्पूर्ण अंतरा परिपूर्ण वर्णिक संख्या का पालन करता देखा जाता है। सूरके निम्न पद को लीजिये, जो राग देवगंधार' में गाया जाता है। पूरा पद एक घनाक्षरी में निबद्ध है। मैं जाने हौं जू नीकैं तुम्हें ए हो प्यारे लालन, नहीं सिधारिए जहाँ, लाग्यो नयो नेहरा । मुख की भलाई तुम, मोह सों करन आए, जानी जी की तुम बिनु, सूनो वाको गेहरा ।। निसि के सुख कौं कह, देत हैं अधर नैन, उर नख लागे अति, छबि भई देहरा । बेगि सवारो पाँव, धारो सूर स्वामी न तु, भीजैगो पियरो पट, आवत है मेहरा ।। स्पष्ट है, उक्त पद के दो चरणों में ८, ८, ८, ७ वर्गों पर यति भी पाई जाती है, चतुर्थ चरण में यह यतिव्यवस्था ७, ८, ८, ७ हो गई है, जहाँ पूरे ३१ वर्ण न होकर केवल ३० वर्ण ही मिलते हैं, किन्तु उसका प्रवाह अक्षुण्ण है, साथ ही प्रथम चरण में यतिव्यवस्था १६, ८, ७ (या १६, १५) है। किन्तु इससे उक्त पद के घनाक्षरीत्व में कोई आँच नहीं आती। आल्हा छन्द हिन्दी काव्यपरम्परा में अभी तक समस्या बना हुआ है। जगनिक की रचना को विद्वान् परवर्ती मानते हैं और इसका पुराना रूप कहाँ है, इसके बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं किया जा सकता । गोस्वामी तुलसीदास को इस छन्द का पता नहीं था और यदि उन्हें इसका पता होता, तो वे इसमें भी रामकथा कहते, यह कहकर कुछ हिन्दी लेखकों ने यह निर्णय-सा दे दिया है कि तुलसीदास के काल में आल्हा छन्द का प्रचार नहीं था। मुझे तुलसीदास के ही समसामयिक अष्टछाप–कवि परमानन्द के पदों में 'आल्हाछन्द' (वीर छंद) मिला है। एक उदाहरण निम्न है : आज अमावस दीपमालिका बड़ी पर्वणी है गोपाल । घर घर गोपी मंगल गावे सुरभी वृषभ सिगारो लाल ।। १. सूरसागर, दशमस्कंध पद १८०९, पृ. ८७७ २. सूरसागर, दशमस्कंध पद २५३७, पृ. ११०० ३. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य का आदिकाल पृ. ११२ ४. परमानन्ददास : वर्षोत्सवकीर्तनसंग्रह भाग २ पृ. ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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