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प्राकृतपैंगलम् से न मिलाने की व्यवस्था भी ढीली पड़ गई है। उसका नियमतः परिपालन अनावश्यक समझा जाने लगा और 'चौपाई' की एकमात्र लाक्षणिक विशेषता प्रति चरण १६ मात्रा की योजना मानी जाने लगी है। जहाँ गुजराती काव्यपरंपरा में इन अपभ्रंश तालच्छंदों की मूल प्रकृति पूर्णत: सुरक्षित रही है, वहाँ हिंदी कवियों के हाथों इनका दूसरे ही ढंग का विकास हो गया है। प्राकृतपैंगलम् से लेकर भिखारीदास तक कहीं भी कोई भी छंदःशास्त्री इन छंदों की तालव्यवस्था का संकेत नहीं करता, उनके लक्षण केवल मात्रा-भार, कहीं कहीं मात्रिक गण व्यवस्था और किन्हीं किन्हीं विशेषछंदों में लगात्मक व्यवस्था का ही संकेत करते हैं । जब कि दूसरी ओर गुजराती के पिंगल ग्रंथों में इन छंदों के लक्षणों में स्पष्टत: तालव्यवस्था का भी संकेत मिलता है। कौन छंद किस ताल में गाया जायगा, छंद की किस किस मात्रा पर ताल पड़ेगी, तालखंडों का विभाजन किस ढंग से होगा, इसका स्पष्ट उल्लेख 'दलपतपिंगल' जैसे गुजराती ग्रंथों में मिलता है, जो इसका संकेत करता है कि मध्ययुगीन गुजराती कवियों ने अपने यहाँ इन छंदों की मूल गेय प्रकृति को सुरक्षित रक्खा है।
मध्ययुगीन हिंदी पद-साहित्य में अपभ्रंश तालच्छंदों की परम्परा सुरक्षित रही है। पदों के अंतरों के रूप में अनेक मात्रिक छंदों और उनके विविध मिश्रित स्वरूपों को देखा जा सकता है। अपभ्रंश में ही सरहपा, कण्हपा और दूसरे अनेक बौद्ध सिद्धों के चर्यापदों में चौपाई (अरिल्ल) आदि छंद मिलते हैं। जयदेव के गीतगोविंद के पदों में अंतरे किन्हीं अपभ्रंश तालच्छंदों के ही मिश्रित रूप है। उदाहरण के लिए निम्न पद के अंतरे २८ मात्रा वाली द्विपदियाँ है, जो मूलतः ८, ८, १२, मात्रा छ: चरणों से बनी षट्पदियाँ जान पड़ती हैं। यह छंद परवर्ती 'हरिगीतिका' के ढंग पर है :
विगलितवसनं, परिहृतवसनं, घटय जघनमपिधानं । किशलयशयने, पङ्कजनयने, निधिमिव हर्षनिधानं ॥
धीरसमीरे, यमुनातीरे, वसति वने वनमाली ॥२ संत कवि कबीर के यहाँ पदों में चौपाई और अन्य अनेक मात्रिक छंद मिलते हैं। निदर्शन के लिये हम २६ मात्रा वाले 'हरिगीत' (या चर्चरी) छन्द की द्विपदियों के अंतरे देख सकते हैं, जो 'राग मालीगौड़ी' में गाये जाने वाले पद के अंश है :
'पंडिता मन रंजिता, भगति हेत ल्यौ लाइ रे, प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर, और कारण जाइ रे ॥टेक।। रांम छै पणि काम नाही, ग्यांन छै पणि धंध रे । श्रवण छै पणि सुरति नांहीं, नैंन छै पणि अंध रे ॥ जाकै नाभि पदम सु उदित ब्रह्मा, चरन गंग तरंग रे।
कहै कबीर हरि भगति बांछू, जगत गुर गोब्यंद रे ॥ स्पष्टतः अंतरा के छन्द में १४, १२ पर यति पाई जाती और यह २६ मात्रा वाला तालच्छन्द है। यह ठीक वही छन्द है जिसका संकेत हम 'चर्चरी' के रूप में आगे करेंगे ।
सूर और तुलसी के यहाँ तो चौपाई, दोहा (दोहे के विकसित रूप), सवैया और घनाक्षरी तक पदों के अंतरों के रूप में मिलते हैं। चौपाई का तो प्रचुर प्रयोग कई भक्त कवियों के पदों में मिलता है, दोहे के समचरणों में दो या तीन मात्रा बढ़ाकर दोहे के ही विशिष्ट भेद के आधार बने अंतरों के इस पद को कीजिये, जो तुलसीदास की गीतावली से उद्धत है। यह पद 'राग आसावरी' में गाया जाता है।" १. उदाहरण के लिये सरह के निम्न 'पद' (राग गुंजरी) के अंतरों में अरिल्ल छंद है :
अपणे रचि रचि भव निव्वाणा । मिच्छे लोअ बँधावइ अपणा ।। अक्खें ण जाणहु अचिंत जोई । जाम-मरण भव कइसन होई ॥ (हिंदी काव्यधारा पृ. १६) इसी तरह 'राग भैरवी' में निबद्ध कण्हपा के निम्न चर्यापद के अंतरों को ले सकते हैं, जो भी अरिल्ल में ही निबद्ध है :भव-णिब्बाणे पडइ माँदला । मन-पवन-बेण्णि करेउँ कसाला ।। जअ जअ दुन्दुहि सद्द उछलिला । काण्हे डोम्बि-विवाहे चलिला । (वही पृ० १५२) गीतगोविंद सर्ग ५, पद २.
३. कबीरग्रंथावली पद ३९०, पृ. १८६ ४. गीतावली, बालकांड, पद १९. (तुलसीग्रंथावली २ पृ. २३३)
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