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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःपरम्परा तालच्छंदों की परम्परा को एक साथ आत्मसात् कर सामने आई है, किंतु इनमें भी हिंदी की काव्यपरंपरा का विशेष झुकाव अपभ्रंश के तालच्छंदों की ही ओर जान पड़ता है। इतना होते हुए भी अपभ्रंश के कुछ तालच्छंदो का एक भिन्न कोटि का विकास भी हिंदी काव्यपरम्परा में होने लगा है। कई मात्रिक तालच्छंदों को वर्णिक वृत्तों के साँचे में ढालकर उनके मात्रिक भार के साथ ही साथ वर्णिक भार (syllabic weight) को भी नियमित करने की चेष्टा दिखाई पड़ने लगती है। इस चेष्टा के बीज तो कुछ तालच्छंदों के संबंध में हेमचन्द्र के यहां भी मिल जायेंगे, जहाँ कतिपय छंदों में कुछ स्थानों पर 'वर्णिक गणों' (सगण, जगण आदि) के प्रयोग या वारण का संकेतित किया गया है। पर वहाँ प्रत्येक चरण की मात्राओं को निश्चितसंख्यक वर्गों की बंदिश में बाँधने की व्यवस्था का उदय नहीं हुआ है। पुरानी हिंदी के भट्ट कवियों के यहाँ ही यह शुरूआत हुई जान पड़ती है। फलतः मात्रिक छंदों का वणिक वृत्तों के रूप में कायाकल्प हो गया है। मेरा तो यहाँ तक अनुमान है कि हिंदी का मुक्तक वर्णिक वृत्त 'घनाक्षरी' (कवित्त) भी मूलत: मात्रिक तालच्छंद का ही वह प्ररोह है, जो भट्ट कवियों की पिछली पीढ़ी (अकबर के समसामयिक कवियों गंग, नरहरि आदि) के यहाँ वणिक रूप धारण कर चुका है । घनाक्षरी में संस्कृत वणिक वृत्तों की सी किसी निश्चित लगात्मक पद्धति का अभाव ही इस तथ्य की पुष्टि करता है कि यह मूलत: वर्णिक छंद नहीं रहा होगा । सूर और तुलसी के पदों के अंतरों के रूप में घनाक्षरी का अस्तित्व भी इसका सबल प्रमाण है।
मात्रिक तालच्छन्दों को वर्णिक साँचे में भी ढाला जाना इस बात का संकेत करता है कि पुरानी हिन्दी की स्थिति से ही हिन्दी कवियों पर संस्कृत साहित्य का फिर से काफी प्रभाव पड़ने लगा है। यह प्रभाव हिन्दी के मध्ययुगीन कवियों की उस श्रेणी पर विशेष दिखाई पड़ेगा, जो अपनी काव्यरचना लोक-सामान्य के लिए न कर राजदरबारों के लिए कर रहे थे। हिन्दी के जनकवियों ने प्रायः पदों या अपभ्रंश तालच्छन्दों को ही चुना । इस कोटि के कवियों में कबीर, सूर, तुलसी, मीरा आदि मध्ययुगीन हिन्दी कवि आते हैं । दोहा मुक्तक काव्य का प्रबल माध्यम अपभ्रंश में ही बन चुका था
और रीतिकाल के शृंगारी मुक्तकों और नीति काव्यों में इसे चुना गया । शृंगारी मुक्तकों के लिये सवैया के नवीन वर्णिक रूप और मुक्तक वर्णिक घनाक्षरी और वीररसात्मक या राजस्तुति मुक्तकों के लिये भट्ट कवियों के पेटेंट छन्द छप्पय और घनाक्षरी चुने गये। इस राज-कवियों के यहाँ दोहा, सवैया, छप्पय और घनाक्षरी अपना मूल तालच्छन्द वाला रूप खो चुके थे, वे केवल पाठ्य छन्द बन चुके थे, गेय छन्द नहीं रहे थे। स्पष्ट ही यह प्रभाव संस्कृत वृत्तों की परम्परा का है, जो मूलतः पाठ्य छंद ही है। शुद्ध संस्कृत वर्णिक छन्दों की परम्परा मध्ययुगीन हिन्दी कविता में उसका प्रधान लक्षण नहीं मानी जा सकती। केवल केशवदास, गुमान मिश्र जैसे वैचित्र्यप्रेमी कवि ही इन वणिक संस्कृत वृत्तों पर हाथ आजमाते दिखाई पड़ते हैं । मध्ययुगीन हिंदी की छंद: परंपरा के पेटेंट छंद एक और दोहा-चौपाई, दूसरी ओर दोहा, सवैया, छप्पय, घनाक्षरी और तीसरी और गेय पद तक ही सीमित है। आधुनिक काल में जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी संस्कृत वर्णिक वृत्तों की परंपरा हिंदी में लाये तो उसके साथ 'हरिगीतिका' वाली मूल मात्रिक छंदों की परम्परा भी खड़ी बोली हिंदी कविता में जीवित रही और छायावादी कवियों ने फिर से हिंदी कविता में मात्रिक छंदों की नई साजसज्जा और नये परिवेश के साथ प्रतिष्ठापना की । आचार्य द्विवेदी संस्कृत वर्णिक वृत्तों की छन्दःपरम्परा को, मेरी समझ में मराठी काव्यपरम्परा से प्रभावित होकर, हिंदी में ला रहे थे। मराठी और गुजराती काव्यों पर मात्रिक तालच्छंदों के साथ साथ संस्कृत वर्णिक वृत्तपरम्परा भी काफी हावी दिखाई पड़ती है, और यहाँ तक कि हमारे छायावादी कवियों के समानांतर मराठी और गुजराती रोमैंटिक कवि तक अभी हाल तक संस्कृत वर्णिक वृत्तों में रोमैंटिक भावना की कवितायें लिखते दिखाई पड़ते हैं।
तो, मेरे कहने का मतलब यह है कि मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा का मूल छान्दस परिवेश मात्रिक ही रहा है। यह अवश्य है कि ये छंद, जो मूलतः अपभ्रंश काव्यपरम्परा में ताल के साथ गाये जाते थे, प्राकृतपैंगलम् के समय ही अपना गेयत्व खोने लगे थे, पर उसकी गेयता के अनेक चिह्न प्राकृतपैंगलम् में फिर भी सुरक्षित हैं । ताल-यति के स्थान पर 'यमक' (तुक या अनुप्रास) की योजना यहाँ मिलती है । कई छंदों में यह विशेषता मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में भी सुरक्षित है, पर कई में लुप्त हो गई है। ३२ मात्रा वाले मात्रिक छंद के परिपूर्ण वर्णिक सवैया के रूप में परिवर्तित होने पर उसके तालखंडों की नियामक तुक-योजना भी समाप्त कर दी गई है। इसी तरह चार चार मात्रा के चतुष्कलों
में विभाजित षोडशमात्रिक छंद 'पज्झटिका' आदि के नवीन रूप में 'चौपाई' बन जाने पर प्रत्येक चतुष्कल को दूसरे Jain Education International
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