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________________ संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र ५४७ स्थापना ही पर्याप्त न मानकर उनकी स्थापना २ x ४ + २ x ३ + २ x ४ + २ इस क्रम से मानी है, तथा छप्पय या दिवड्ड छंद (सार्धच्छन्दस्) के अंतिम दो चरणों में नियत रूप से २८-२८ (१५ + १३) मात्रा मानी है। नंदिताढ्य के 'गाथालक्षण' का अपभ्रंश छंदों के अध्ययन में इसलिये महत्त्व है कि यह इन छंदों की प्राचीनतम छन्दःशास्त्रीय परम्परा का संकेत करता है। (२) विरहाङ्क का 'वृत्तजातिसमुच्चय १४९. विरहाङ्क का 'वृत्तजातिसमुच्चय' नंदिताढ्य के 'गाथालक्षण' की अपेक्षा अधिक शास्त्रीय पद्धति पर लिखा गया है । ग्रन्थ छ: नियमों (परिच्छेदों) में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद प्रास्ताविक है। इसमें वर्णित छंदों की तालिका तथा मात्रागणों की द्विविध संज्ञायें दी गई हैं। द्वितीय तथा तृतीय नियमों में उन द्वीपदी छंदों का क्रमश: उद्देश तथा लक्षणोदाहरण दिया गया है, जो ध्रुवा या ध्रुवका के रूप में प्रयुक्त होती हैं । इन द्विपदियों का जिक्र प्राचीन छन्दःशास्त्रियों भुजगाधिप, शातवाहन, तथा वृद्धकवि के अनुसार किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में ३७ सममात्रागण द्विपदियों के साथ ७ अन्य सममात्रागण द्विपदियों की और तालिका दी गई है। इस तरह कुल ४४ सममात्रागण द्विपदियों के बाद ८ अर्धसमा द्विपदियों की तालिका है। तृतीय नियम में इन्हीं ५२ द्विपदियों के लक्षणोदाहरण इस तरह एक एक छंद में दिये गये हैं कि उक्त छंद में तत् द्विपदी का लक्षण तथा उदाहरण दोनों है, जैसे 'सुमंगला' द्विपदी का लक्षणोदाहरण निम्न है : 'वारणजोहरहतुरंगमएहि, विरमपद्धिविअविहूसणएहिं । पाओ दूरं सुमणोहरिआए, होइ अ सोम्ममुहि सुमङ्गलिआए ॥ (३.१६) (हे सौम्यमुखि प्रिये, मनोहर सुमंगला द्विपदी का प्रत्येक चरण पादांत (विराम) में स्थित गुरु से युक्त वारण, योध, रथ, तथा तुरंगम (अर्थात् चार चतुर्मात्रिक गण) से संयुक्त होता है अर्थात् सुमंगला द्विपदी के प्रत्येक चरण में १७ मात्रा ( ४ x ४ + 5) होती हैं ।) चतुर्थ नियम के आरंभ में संक्षेप में गाथा, स्कंधक, गीति तथा उपगीति का संकेत किया गया है। तदनंतर ८० के लगभग मात्रावृत्तों का विवरण दिया गया है, जिनमें से निम्न छंद ही ऐसे हैं, जिनका प्रचलन अपभ्रंश तथा बाद के काव्यों में अधिक पाया जाता है :- अडिला (४.३२), उत्फुल्लक (४.६३), खडहडक (४.७३-७४), ढोसा (४.३५), द्विपथक या दूहा (४.२७), मात्रा (४.२९-३१), रड्डा (४.३१), रासक (४.३७-३८), तथा रास (४, ८४) । प्रा० पैं० में इनमें से केवल अडिला, दूहा, मात्रा तथा रड्डा ये चार ही छंद पाये जाते हैं । ढोसा छंद गाथा का ही एक भेद है, जहाँ चौथा चतुर्मात्रिक गण सामंत (151) या द्विज (II) पाया जाता है, और गाथा की रचना मारवाड़ी अपभ्रंश में की जाती है। विरहांक ने रासक की दो तरह की परिभाषायें दी हैं। (१) वित्थारिअआणुमएण कुण । दुवईछन्दोणुमएव्व पुण ॥ इअ रासअ सुअणु मणोहरए । वेआरिअसमत्तक्खरए ॥ (४.३७) (हे सुतनु, विस्तारित अथवा द्विपदी छंद के अंत में विचारी का प्रयोग करने पर सुंदर रासक छंद होता है)। (२) अडिलाहिं दुवहएहिंव मत्ताराहि तह अ ढोसाहि । बहुएहि जो रहज्जई सो भण्णइ रासऊ णाम ।। (४.३८) . भुअआहिवसालाहणबुड्डकई(हिं) णिरूविअं दइए । णिहणणिरूविअधुवअम्मि वत्थुए गीइआ णत्थि ।। भुअआहिवसालाहणबुडकइणिरूविआण दुवईण । णामाई जाई साहेमि तुज्झ ताइंविअ कमेण ॥ - वृत्तजातिसमुच्चय २, ८-९) २. वही २.१०-१३. ३. वही २.१४ ४. वही २.१५ ५. जइ ब्राह्मणि तिण्हु चउत्थु देहि हू कुञ्जराहु सामन्तु । भासा तो भ्रोहिअ मारवाइऊ गाह ढोसत्ति - वृत्तजाति० ४.३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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