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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःपरम्परा संगीत में प्रायः ४, ५, ६ और ७ मात्रा के मात्रासमूहों को लेकर ताल-व्यवस्था की जाती है। इसके अतिरिक्त ८ मात्रा की ताल की भी व्यवस्था पाई जाती है, जिसे कभी तो ४-४ मात्रा के दो टुकड़ों में विभक्त कर दिया जाता है, कभी नहीं । ८ मात्रा या उसके गुणित मात्रासमूह वाले छन्द प्रायः 'धूमाली ताल' में गाये जाते हैं, जिनमें चार-चार मात्रा के अथवा आठ-आठ मात्रा के तालगणों की व्यवस्था की जाती है। अडिल्ला, पादाकुलक, पज्झटिका, जैसे १६ मात्रा वाले छन्द इसी ताल के अन्तर्गत आते हैं। पादाकुलक और पज्झटिका दोनों आठ-आठ मात्रा की ताल में गाये जाने पर भी, परस्पर इस दृष्टि से भिन्न हैं कि पादाकुलक में प्रथम और नवम मात्रा पर ताल दी जाती है, जब कि पज्झटिका में पहली दो मात्रा छोड़कर, तीसरी मात्रा पर तदनन्तर ११ वी मात्रा पर ताल दी जाती है । इसका स्पष्ट कारण पादाकुलक
और पज्झटिका के लक्षण-भेद से भी ज्ञात होता है। पादाकुलक छन्द में प्रत्येक चरण में १६ मात्रा का विधान है किन्तु यहाँ किसी प्रकार का लघु गुरु का नियम नहीं पाया जाता', जबकि पज्झटिका के प्रत्येक चरण के अन्त में 'जगण' का विधान पाया जाता है जो यह संकेत करता है कि जगण के आरंभ के पूर्व की मात्रा से पहले (अर्थात् ११ वी मात्रा पर) ताल पड़ेगी जो चरण में दूसरी ताल होगी और इसके अनुसार पहली ताल चरण की तृतीय मात्रा पर होगी। उदाहरण के लिए निम्न छन्द में पहली ताल क्रमशः 'गंजिय' के 'गं', 'उदंड' के 'दं', 'गुरुविक्कम' के 'वि', 'कण्ण' के 'क' पर और दूसरी ताल 'गोडाहिवई' के 'हि', 'भअ' के 'भ', 'जिणिअ' के 'जि' और 'कोई' के 'को' पर पड़ेगी।
जे गंजिअ गोडाहिवइ राउ उदंड ओडु जसु भअ पलाउ ।
गुरुविक्कम विक्कम जिणिअ जुज्झ ता कण्ण परक्कम कोई बुज्झ ॥ (प्रा० पैं० १-१२६) पाँच, छै और सात मात्रा समूहों वाली तालों को संगीतशास्त्र में क्रमशः 'झम्पा', 'दादरा' और 'दीपचन्दी' नाम दिया गया है । इन तालों में क्रमशः ५, ६ और ७ मात्रा के बाद ताल दी जाती है। प्रथम ताल प्रायः पहली या तीसरी मात्रा से शुरु होती है और संगीतज्ञ अधिकांश रूप में तीसरी मात्रा से ताल शुरू करते देखे जाते हैं । लम्बे छन्दों में तालखण्डों को प्रायः 'यमक' अलंकार अथवा 'अनुप्रास' के द्वारा संकेतित करने की परम्परा अपभ्रंश छन्दों की खास विशेषता रही है, जिसका संकेत हम 'पद्मावती', 'लीलावती', 'दुर्मिला', 'जलहरण', 'मदनगृह', 'मरहट्ठा' और 'त्रिभंगी' जैसे छन्दों पर विचार करते समय करेंगे । १४ मात्रावाले छन्द प्रायः दीपचन्दी ताल में गाये जाते हैं, किन्तु कई छन्द इस वर्ग के ऐसे भी है, जिनमें गायक दो मात्रा का प्रस्तार देकर उसे षोड़शमात्रिक बना लेता है। उदाहरण के लिए 'हाकलि' छन्द १४ मात्रा का होने पर भी उसके प्रत्येक चरण के गाने में षोड़शमात्रिक प्रस्तार बढ़ा कर उसकी पहली और नवी मात्रा पर ताल दी जाती है।
तालगण की व्यवस्था के साथ ही अपभ्रंश तालछन्दों का यह खास नियम है कि जहाँ जिस मात्रा पर ताल पाई जाती है उसे किसी अन्य मात्रा के साथ, गत मात्रा के साथ, संयुक्त नहीं किया जाता, कुशल लेखक प्रायः ऐसे स्थानों पर ऐसे गुरु अथवा दीर्घ अक्षर का प्रयोग नहीं करते जो पूर्ववर्ती तालगण की मात्रा से आगत गण की प्रथम मात्रा को संयुक्त कर दे। उदाहरण के लिए आठ-आठ मात्रा वाले तालखण्डों के षोडशमात्रिक छन्द में कुशल अपभ्रंश कवि नवीं मात्रा के स्थान पर ऐसे अक्षर की योजना न करेगा जिसमें ८वीं और ९वीं दोनों मात्राएँ शामिल हो जायें। अपभ्रंश काल तक कवियों ने ताल गणों की इस व्यवस्था पर पूरी तरह ध्यान दिया है, किन्तु मध्ययुगीन हिन्दी कविता में आकर यह व्यवस्था लुप्त हो गई है। इसीलिए तुलसीदास की चौपाइयों में ऐसे अनेक निदर्शन मिल जायेंगे जहाँ चरण की आठवीं
और नवी मात्रा को - गत तालखण्ड की अन्तिम मात्रा के साथ आगत ताल खण्ड की प्रथम मात्रा को - गुरु अक्षर की नियोजना कर संयुक्त कर दिया गया है । इस सम्बन्ध में हम तुलसी की निम्न अर्धाली ले सकते हैं :
"मुनि तव चरन देखि कह राऊ ।
कहि न सकौं निज पुन्य प्रभाऊ ॥" यहाँ प्रथम चरम में 'देखि' के 'दे' में ८वीं और ९वीं दोनों मात्राएँ संयुक्त हैं, जब कि दूसरे चरण में 'निज' के 'ज' की मात्रा ८वीं है और पुण्य के 'पु' की ९वीं । इस दृष्टि से अपभ्रंश छन्दःपरम्परा के अनुसार दूसरी पंक्ति में तालखण्डों १. प्रा० पैं० १-१२९ । २. प्रा० पैं० १-१२५ ।। ३. Velankar : Apabhramsa Metres I$ 18 (J. U. B. 1933 Vol. II. pt. III).
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