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अपभ्रंश छन्दः परम्परा
$ १४४. भारतीय छन्दः शास्त्र में अपभ्रंश छन्दः परम्परा का अपना निजी महत्त्व है। वैदिक एवं शाखीय संस्कृत छन्दों की परंपरा वर्णिक अथवा अक्षरात्मक है, जिसके प्रत्येक चरण में नियतसंख्यक अक्षरों की निश्चित गणात्मक क्रम में अवस्थिति पाई जाती है । वर्णिक गणव्यवस्था के कारण संस्कृत छन्दों में अक्षर-भार के साथ ही साथ मात्राभार भी नियमित हो जाता है । प्राकृत छन्दः परम्परा का उदय अपने समय के लोकगीतों से अवश्य हुआ है, किन्तु ये छन्द ताल और तुक के अभाव के कारण अधिक संगीतात्मक नहीं बन पाए हैं। वैसे संस्कृत नाटकों में सर्वप्रथम इन छन्दों का प्रयोग गीतों के लिए मिलता है। प्राकृत छन्द आरम्भ से ही मात्रिक छन्द हैं, जिनमें अक्षरों की अपेक्षा मात्राभार की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है। प्राकृत कवियों ने मात्राभार का सिद्धान्त लोक संगीत से ग्रहण किया था जब प्राकृत भाषा साहित्यिक परिनिष्ठित भाषा बन गई तो पिछले खेवे के कवियों ने प्राकृत छन्दों को इतना अधिक रूढ़ बना दिया कि वे संगीतात्मक न रह पाए। यही कारण है कि जब हम अपभ्रंश छेदः परम्परा का विचार करने बैठते हैं तो हमें ध्यान रखना होगा कि अपभ्रंश छंद उस काव्य परम्परा के अभिन्न अंग हैं, जो जन सामान्य के लिए विकसित हुई थी और जिसका परिवेश लोकगीतों की संगीतात्मकता से समृद्ध है । अनेक अपभ्रंश छंदों में इसीलिए मूलतः विभिन्न प्रकार की तालों का नियमन पाया जाता है और ये छंद किसी न किसी वाद्ययंत्र के साथ गाये जाते रहे हैं, जिनमें मात्रा और ताल के नियामक यन्त्रों का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है हमारे कहने का मतलब यह नहीं कि अपभ्रंश के सभी छंदों में तालनियमन पाया जाता है; ऐसे भी अपभ्रंश छंद मिलते हैं, जो शुद्ध मात्राभार पर ही टिके हुए हैं। इस आधार पर छन्दों को सर्व प्रथम दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है; मात्रावृत्त और तालवृत्त । प्रथम कोटि के अपभ्रंश छन्द सिद्धान्ततः प्राकृत के मात्रिक छन्दों के समान ही हैं, उन्हीं की तरह इनमें मात्रा गणना को प्रक्रिया पाई जाती है; भेद केवल इतना भर है कि इन अपभ्रंश मात्रिक छन्दों में नियमित तुक का निर्वाह पाया जाता है, जो प्राकृत के निजी छन्दों में अनावश्यक है। ताल छन्दों में, जैसा कि हम आगे बतलाने जा रहे है, ताल के नियामक विविध मात्रासमूहों का महत्त्व है, जिनकी अवहेलना करने पर छन्द की गति, लय और गूँज ही टूटती नजर आयेगी। यह दूसरी बात है कि पिछले दिनों लोकसंगीत से अपरिचित लोगों के हाथों गुजरने पर ये ताल-छन्द भी अपना वास्तविक रूप खोकर महज मात्रिक छंद बन बैठे और मध्ययुगीन हिन्दी कविता में दोहा, सोरठा, अडिल्ल, रोला, हरिगीतिका, दुर्मिला जैसे अनेकानेक तालछन्दों में मध्यकालीन कवि केवल मात्राएँ गिनकर रचना करने लगे ।
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प्राकृतपैंगलम्
अपभ्रंश छन्दों का विचार करते समय हमें यह समझ लेना होगा कि मात्रिक गण दो प्रकार के हो सकते हैं, एक शुद्ध मात्रिक गण, जिन्हें द्विमात्रिक, त्रिमात्रिक, चतुर्मात्रिक, पञ्चमात्रिक, षण्मात्रिक कहा जाता है, और ये उलटे क्रम से टगण, ठगण, डगण, इगण, णगण अथवा छ प च त द कहलाते हैं। स्वयंभू और हेमचन्द्र ने इन्हें द्वितीय पारिभाषिक नामों से अभिहित किया है। इस सामान्य मात्रागणों के अतिरिक्त संगीतात्मक अपभ्रंश छन्दों में दूसरे ढंग के गणों की आवश्यकता होगी, जिन्हें हम 'तालगण' कह सकते हैं, क्योंकि इन गणों का प्रयोग विविध मात्रासमूहों की तालगत प्रक्रिया के लिए परमावश्यक है । ताल से तात्पर्य किसी विशेष छन्द के चरण में एक नियतकाल सीमा के आधार पर, किन्हीं निश्चित क्षणों पर विश्राम लेना है, जिसकी सूचना उस मात्रा पर जोर देकर (ताल देकर ) की जाती है । यह यतिसूचक ताल, स्वर के उदात्तीकरण के साथ ही साथ 'करताल' (हाथ की ताली) के द्वारा अथवा तबले जैसे किसी वाद्ययन्त्र के द्वारा दी जाती है। इस ताल योजना से छन्द की गति और लय में एक नया चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। संस्कृत वृत्तों की यतिसम्बन्धी धारणा से इस तालयति सम्बन्धी धारणा में समानता सिर्फ इतनी है कि ये दोनों छन्द का पाठ करनेवाले कवि या पाठक की स्वर लहरी को बीच में विश्राम प्रदान करती है, किन्तु जहाँ संस्कृत वृत्तों में यह विश्राम छन्दः शास्त्र की अपनी मान्यताओं से आबद्ध हैं, वहाँ अपभ्रंश छन्दों में इनका नियमन संगीतात्मक विश्राम के द्वारा किया जाता है
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टट्टुडढणाह मझे, गणभेआ होति पंच अक्खरओ
छपचतदा जहसंखं उप्यंच चउत्तिदुकलासु ॥ प्रा० पै० १.१२६)
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२. HD. Velankar : Apabhramsa Metres 1. $ 9.
(J. U. B. 1933, Vol. II, pt III, p. 44)
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