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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःपरम्परा
१. ७ तगण+गुरु (२२ अक्षर) (मत्स्य० १५४-५५३, ५५५) २. ८ रगण (२४ अक्षर) (वही १५४-५५६-५७५) ३. ८ यगण (२४ अक्षर) (वही १५४-५७६, ५७७)
वस्तुतः समय समय पर संस्कृत कवियों ने कई नये छंदों की ईजाद की है। पुराने कवियों के द्वारा प्रयुक्त छंदों में ही कुछ हेर फेर कर नई गूंज और नई लय देकर नये छंद बनाये जाते रहे हैं। उदाहरण के लिये मंदाक्रांता में थोड़ा हेर फेर कर हरिणी तथा भाराक्रांता छंद बनाये गये हैं। मंदाक्रांता के ४, ६, ७ वाली यति को ६, ४, ७ कर देने से तथा तृतीय यत्यंश में कुछ परिवर्तन करने से हरिणी छंद बन जाता है। मन्दाक्रांता के प्रथम यत्यंश 5 5 5 5 को द्वितीय अंश बना देने पर तथा द्वितीय यत्यंश 15 को प्रथम अंश बना देने पर तथा चरण के तृतीयांश को ऽ।ऽऽ।ऽऽ के स्थान पर ISISIS कर देने पर हरिणी छंद हो जायगा। भाराकांता के प्रथम और द्वितीय यत्यंश ठीक वही हैं, जो मंदाक्रांता के; तृतीय अत्यंश में यहाँ ।ऽ।ऽ।ऽ होता है । इसी तरह स्रग्धरा के तृतीय यत्यंश में ही थोड़ा हेरफेर कर देने से सुवदना छंद बन जाता है। पिछले संस्कृत कवियों ने इस तरह के कई छंद बनाये हैं। भट्टिकाव्य में नर्दटक और जलोद्धतगति के मिश्रण से नया छंद बनाया गया है, जिसे अश्वललित छंद कहा जाता है।
विलुलितपुष्परेणुकपिशं प्रशान्तकलिकापलाशकुसुम कुसुमनिपातचित्रवसुधं सशब्दनिपतद्रुमोत्कशकुनम् । शकुननिनादनादितकबुब्विलोलविपलायमानहरिणं
हरिणविलोचनाधिवसतिं बभंज पवनात्मजो रिपुवनम् ॥ (भट्टिकाव्य '८-१३१) इस छंद पर विचार करते हुए श्री रामनारायण पाठक लिखते हैं- "आमां नर्दटक अने जलोद्धतगतिनुं मिश्रण छे पण मिश्रणनो प्रकार उपरना मिश्रणो करतां भिन्न छे, अने परिणाम सुमेळवाळु आव्युं नथी । जलोद्धतगतिने में मुख्य वृत्तोमां स्थान आप्युं नथी, कारण के मारी दृष्टिए ए सुन्दर नथी, अने कविओए बहु वापरेलुं पण नथी ।"१
माघ के शिशुपालवध में भी धृतश्री (३.८२), मंजरी (४-२४), अतिशायिनी (८.७१), रमणीयक (१३.६९) जैसे अप्रसिद्ध छंद मिलते हैं। इनमें से उक्त चारों छंदों को विद्वानों ने माघ की ही ईजाद माना है। मंजरी छंद की उट्टवणिका (लगाल, ललगा, लगागा, लगा) संकेत करती है कि इसमें प्रमिताक्षरा तथा पृथ्वी के यतिखंडों को लेकर रचना की गई है। इसी तरह रमणीयक (गालगा लललगा ललगा ललगा लगा) में रथोद्धता और द्रुतविलंबित के यतिखंडों को लेकर रचना की गई है। हेमचंद्र ने 'प्रभद्रक' छंद का उल्लेख किया है, जो वस्तुतः नर्दटक और रथोद्धता के यतिखंडों से बना है। इस छंद की उट्टवणिका यों है :
ललललगा लगा लललगा लगालगा ।
इसमें अंतिम अंश (लगालगा) रथोद्धता का अंतिम टुकड़ा है, शेष तीन टुकड़े नर्दटक के शुरू के तीन टुकड़े हैं। प्रभद्रक छंद का संकेत हिंदी छन्दःशास्त्री भिखारीदास ने भी छंदार्णव के बारहवें तरंग के ५६-५७ वें छंदों में किया है।
संस्कृत छंदःपरंपरा का विस्तृत विवरण देना हमारा लक्ष्य नहीं है, यहाँ तो हम प्रसंगतः केवल संस्कृत छंद: परंपरा की मूल प्रकृति का संकेत करते हुए यह बताना चाहते थे कि संस्कृत में छंदों की विविधता में मूल प्रवृत्ति क्या थी। संस्कृत वर्णिक छंदों को तीन कोटियों में विभक्त किया जाता है : - १. सम वृत्त, जिनके प्रत्येक चरण में समान अक्षर हों, २. अर्धसम वृत्त, जिनके सम पदों में समान और विषम पदों में समान वर्णिक गणव्यवस्था हो, ३. विषम वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण की अक्षरसंख्या और वर्णिकगण व्यवस्था भिन्न हो । संस्कृत के अधिकांश छंद सम वृत्त है। अर्धसम वृत्तों १. बृहत् पिंगल पृ० २५२. २. वही पृ० २४७-२४८.
इसका उदाहरण 'छंदोनुशासन' के अनुसार यह है :जयति जगत्त्रयोपकृतिकारणोदयो जिनपतिभानुमान्परमधाम तेजसाम् । भविकसरोरुहां गलितमोहनिद्रकं भवति यदीयपादलुठनात् प्रभद्रकं ॥
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