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प्राकृतपैंगलम्
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में विशेष प्रसिद्ध हरिणीप्लुता (विषम स स न लगा, सम न भ भ ) अपरवका (विषम न न र ल ग, सम न ज ज र), पुष्पिताग्रा (विषम: नन र य, समः न ज ज र गा), और वियोगिनी (विषम: स स ज ग, सम : स भर लगा) हैं। विषम वृत्तों में उद्गता प्रसिद्ध है, जिसके अनेक भेद पाये जाते हैं। इन दोनों कोटि के छंदों की रचना सम वृत्तों के ही मिश्रण से हुई है।
प्राकृत छन्दः परम्परा
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४ १४३ यद्यपि प्राकृत साहित्य ने बाद में चलकर अपनी अलग से छंदः परम्परा का विकास किया है, तथापि वैदिक संस्कृत के वर्णिक छंदों की ही परम्परा प्राकृत के आरंभिक काल में चलती रही है। संस्कृत छंदों की परम्परा मूलतः मात्रिक छंदों की नहीं है तथागत के प्राचीन मागधी में निबद्ध वचन वर्णिक छंदों में ही मिलते हैं तथा पालिजातकों की गाथायें मूलतः वर्णिक वृत्तपरम्परा पर ही टिकी है। धम्मपद में अनुष्टुपों त्रिष्टुपों और जगती छंदों की अधिकता है।" धम्मपद के त्रिष्टुपों में परवर्ती इन्द्रवज्रादि जैसी गण व्यवस्था नहीं मिलती तथा ऐसे भी पद्य अनेक मिलते हैं, जिनके कतिपय चरणों में ११ से कम या अधिक भी वर्ण मिलते हैं। जैसे निम्न पद्य में प्रथम तीन पाद त्रिष्टुप् के हैं, चतुर्थ जगती का
सव्वत्थ वे सप्पुरिसा चजन्ति, न काम कामा लपयन्ति सन्तो
सुखेन फुट्टा अथवा दुखेन, न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति ॥ ( धम्म० ६-८ )
त्रिष्टुप् वर्ग का ही एक खास प्रकार का भेद धम्मपद में ऐसा देखा जाता है, जिसके कुछ चरणों में दस वर्ण हैं, कुछ में ११: में ११: इनकी गूंज स्पष्टतः परवर्ती संस्कृत छंद 'वियोगिनी' जैसी है इस तरह के 'वियोगिनी' की गूंज वाले छंद धम्मपद में बहुसंख्यक है; जिन्हें मैं वैदिक छंदों के त्रिष्टुप् वर्ग का ही भेद मानना चाहूँगा । वस्तुतः शुद्ध वियोगिनी भी मूलत: ‘विराट् त्रिष्टुप् छंद ही है । धम्मपद से इस ढंग के छंद का एक उदाहरण यह है
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उदकं हि नयन्ति नेत्तिका, उसुकारा दमयन्ति तेजनं ।
दारुं दमयन्ति तच्छका, अत्तानं दमयन्ति पंडिता || (धम्म० ६-५)
कालिदासादि के 'वियोगिनी' छंद की जड़ यहीं है; जहाँ प्रथमार्ध स्पष्टतः 'वियोगिनी' की अर्धाली (स सजग, सभ र ल ग है; द्वितीयार्ध के दोनों चरणों में गण व्यवस्था भिन्न अवश्य है। इससे इतना तो संकेत मिलेगा ही कि प्राकृत के प्रारंभिक काल में वैदिक छन्दः परम्परा ही सुरक्षित थी तथा परवर्ती संस्कृत छन्दः परम्परा की तरह वर्णिक छंद निश्चित अक्षरसंख्या तथा गणव्यवस्था में नहीं जकड़े गये थे। पालि साहित्य से ही जगती छंद का एक उदाहरण यह है; जहाँ विषम पद जगती (१२ वर्ण) के हैं, सम पद अतिजगती (१३ वर्ण) के
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यदा नभे गज्जति मेघदुन्दुभी, धाराकुला विहगपथे समन्ततो ।
भिक्खु च पब्भारगतो व झायति, ततो रतिं परमतरं न विन्दति ॥ ( थेरगाथा ५२२ ).
जैन प्राकृत साहित्य के प्राचीनतम काव्य विमलदेवसूरिकृत 'पठमचरिय' (ईसवी तीसरी शती) से पता चलता
प्रचुर प्रयोग मिलता है।
है कि यहाँ भी सं० वर्णिक वृत्तों को ही लिया गया है। अनुष्टुप् या श्लोक, इन्द्रवज्रा - उपेन्द्रवज्रा, वसंततिलका छंदों का यहाँ परिनिष्ठित प्राकृत कवियों में राजशेखर की 'कर्पूरमंजरी' तथा रामपाणिवाद के 'कंसवहो' (जो परवर्ती रचना है) जैसी कृतियों में वर्णिक छंदों का शास्त्रीय पद्धति के ही अनुरूप प्रयोग मिलता है। किंतु यह प्राकृत की निजी छन्दः परम्परा नहीं है ।
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१. वाग्वल्लभ पृ. २८३ - २८४ ।
२. दे० धम्मपद अनुष्टुप् (१ - १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, आदि अनेक) त्रिष्टुप् (१-१५, १६, १७, १८, १९, २० आदि अनेक) ।
४. विमलदेवसूरि के 'पउमचरिय' से वसंततिलका का एक उदाहरण यह है :
एवं भवंतरकरण तवोबलेण, पार्वति देवमणुए महंत सोक्खं ।
को एत्थ दड्ढनीसेसकसायमोहा, सिद्धा भवंति विमला मलपंकमुक्का ॥ (प० ९-५-१७१)
यहाँ तृतीय चरण में एक वर्ण की कमी है, शुद्ध शास्त्रीय दृष्टि से 'दडविनिसेस०' पाठ करने पर यह दोष दूर हो जायगा ।
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