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प्राकृतपैंगलम् अपेक्षा अधिक पाया जाता है तथा सैफो (ग्रीक कवयित्री) के मुक्तक काव्यों में उन्होंने त्रिपात् वृत्तों के प्रयोग का यही कारण माना है। इस प्रकार 'गायत्री' का विकास संभवतः गेय लोकगीतों से हुआ हो, जिनमें त्रिपात् वृत्तों का प्रचलन द्विपात् (या दो द्विपात्) की अपेक्षा अधिक था । "गायत्री" शब्द की व्युत्पत्ति भी इसके गेयत्व की पुष्टि करती है। गायत्री जैसे पुराने वैदिक छंदों का विकास आर्यों के भारत आने से पहले ईरान में या मेसोपोतामिया में ही हो चुका था। गायत्री तथा अनुष्टुप् जैसे श्लोकबद्ध तथा वृत्तबद्ध (Stanzaic) छंदों की तुलना एक और अवेस्ता, प्राचीन नोर्स, प्राचीन
आइरिश तथा पुरानी लिथुआनी कविता से तथा दूसरी और होमर के षड्गण (hexameter) छंदों से कर प्रो० मेये इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि वेदों की छन्दःप्रणाली भी भारोपीय छन्दोरीति की ही परम्परा का विकास है। शास्त्रीय संस्कृत छंदःपरंपरा
१४२. शास्त्रीय संस्कृत छंदःपरंपरा का विकास मूलतः वैदिक छंदों के ही आधार पर हुआ है, किंतु दोनों की प्रकृति में पर्याप्त अंतर दिखाई पड़ेगा । वैदिक वर्णिक छंदों में वर्गों की नियत संख्या ही प्रधान भेदक तत्त्व थी, जब कि शास्त्रीय वर्णिक छंदः परंपरा में लघुत्व गुरुत्व को ध्यान में रखकर एक ही वैदिक छंद के अनेक प्ररोह निकल पड़े। इस परंपरा का प्राचीन निदर्शन हमें पिंगल छन्दःसूत्र तथा भरत के नाट्यशास्त्र के पन्द्रहवें और सोलहवें अध्यायों में मिलता है । यहीं भरत ने एकाक्षर छंद 'उक्त' से लेकर छब्बीस अक्षरवाले छंद 'उत्कृति' तक के विविध प्रस्तारों का संकेत किया है । छब्बीस से अधिक अक्षर वाले छंदों को भरत ने 'मालावृत्त' कहा है, बाद में यह दण्डक कहलाने लगे हैं। बाद के संस्कृत छन्दःशास्त्रीय ग्रंथों के मूल आधार ये ही दोनों ग्रंथ हैं । व्यावहारिक दृष्टि से संस्कृत छंद: परंपरा का उदय सर्वप्रथम वाल्मीकिरामायण में दिखाई पड़ता है, यद्यपि साहित्यिक संस्कृत छंदों के पूर्वरूप कठोपनिषद् जैसे परवर्ती उपनिषदों में भी मिल जाते हैं। वाल्मीकिरामायण का प्रधान छंद अनुष्टुप् होते हुए भी वहाँ इन्द्रवज्रोपेन्द्रवज्रा वर्ग के छंद',
और वंशस्थ भी विशेषतः प्रयुक्त हुए हैं। रामायण तथा महाभारत में अन्य छंद भी मिलते हैं । रामायण में त्रिष्टुप्, जगती आदि के मिश्रण से बने अर्धसम वृत्त भी मिलते हैं। उदाहरण के लिये वाल्मीकिरामायण में 'अपरवक्त्र' (विषम : न न र ल गा; सम : न ज ज र) का निम्न निदर्शन लिया जा सकता है।
भृशमसुखममर्षिता यदा, बहु विललाप समीक्ष्य राघवम् ।
व्यसनमुपनिशाम्यता महत्सुतमिव बद्धमवेक्ष्य किंनरी ।। (अयोध्याकांड २०-५५) रामायण में 'रुचिरा' छंद का भी निदर्शन मिलता है, जिसकी गणव्यवस्था ‘ज भ स ज ग' तथा यति व्यवस्था ४, ९ (१३ वर्ण) है।
प्रसादयन्नरवृषभः स मातरं, पराकमाज्जिगमिषुरेव दण्डकान् ।
अथानुजं भृशमनुज्ञास्य दर्शनं, चकार तां हृदि जननी प्रदक्षिणम् ॥ (अयोध्याकांड २१-६४) अश्वघोष तथा कालिदास में प्रयुक्त छंदों की विविधता अधिक द्रष्टव्य है, कालिदास के काव्य में कुल १९ छंद प्रयुक्त मिलते हैं, किंतु उनसे खास छंद ७ ही हैं। भारवि तथा माघ में अनेक प्रकृति के छंद देखने को मिलते हैं, किंतु वहाँ भी भारवि ने १२ छंदों का तथा माघ ने १६ छंदों का खास तौर पर प्रयोग किया है, शेष छंद या तो सर्वांत में हैं या फिर उस सर्ग में जहाँ कवि का लक्ष्य विविध छन्दःप्रदर्शन रहा है । पुराणों में परंपरागत छंदों के अतिरिक्त अनेक मिश्रित छंद भी मिलते हैं। कुछ ऐसे भी छंद वहाँ मिलेंगे जिसका संकेत पिंगलछन्दःसूत्र या बाद के किसी छन्दःशास्त्रीय ग्रंथ में नहीं मिलता । उदाहरणार्थ मत्स्यपुराण के १५४ वें अध्याय में ऐसे अनेक छंद हैं, जिनका नामकरण छन्दःशास्त्रीय परंपरा में नहीं मिलता । नमूने के तौर पर हम तीन छंद ले सकते हैं - १. George Thompson : Maxism and Poetry p. 18-20. २. चाटुा : भारतीय आर्यभाषा और हिंदी पृ० ३०. ३. भरत : नाट्यशास्त्र १५.४१-४७, तथा १५.६०-८२ । ४. अतोधिकाक्षरं यत्तु मालावृत्तं तदिष्यते । -१५-४७ । ५. उदा० किष्किधाकांड अध्याय-३० । ६. उदाहरणार्थ, अरण्यकांड १३-२५, ३७-२५, ३८-३३ आदि ।
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