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प्राकृतपैंगलम् शुद्ध दीर्घ स्वरों के अतिरिक्त अन्य स्थिति में भी अक्षर को द्विमात्रिक माना जाता है। छन्दःशास्त्रियों ने बताया है कि "दीर्घ अक्षर, संयुक्त व्यंजन से पूर्व का (ह्रस्व) अक्षर, प्लुत, व्यञ्जनांत, ऊष्मान्त (जिह्वामूलीय तथा विसर्गान्त उपध्मानीय), सानुस्वार, तथा कहीं-कहीं पादांत लघु को भी गुरु (द्विमात्रिक) माना जाता है।" संस्कृत वर्णिक वृत्तों में इस नियम की पूरी पाबन्दी की जाती है तथा हिंदी कवियों ने भी संस्कृत वर्णिक वृत्तों के प्रयोग में इसका पालन किया है :
'बाष्प-द्वारा बहु विधि-दुखों वद्धिता-वेदना के, बालाओं का हृदय नभ जो है समाच्छन्न होता । तो नि ता तनिक उसकी म्लानता है न होती,
पर्जन्यों सा यदि न बरसें वारि हो, वे दृगों से ॥ (प्रियप्रवास १४.९) इस उदाहरण में 'ष्प', 'व', 'च्छ', 'ज' को संयुक्ताद्य दीर्घ ही माना गया है।
संस्कृत पद्यों के उच्चारण में प्रायः पादांत अनुस्वार तथा विसर्ग का उच्चारण प्लुत ही किया जाता है किंतु छन्दःशास्त्री इसकी गणना दीर्घ के साथ ही गुरु के रूप में करते हैं । यथा, (१) अमूर्विमानान्तरलम्बिनीनां, श्रुत्वा स्वनं कांचनकिङ्किणीनाम् ।
प्रत्युव्रजन्तीव खमुत्पतन्त्यो, गोदावरीसारसपङ्क्तयस्त्वाम् ॥ (२) इमां तटाशोकलतां च तन्वीं, स्तनाभिरामस्तबकाभिनम्राम् ।
त्वत्प्राप्तिबुद्ध्या परिरब्धुकामः, सौमित्रिणा साश्रुरहं निषिद्धः ।। (रघुवंश १३ सर्ग) इन दोनों उदाहरणों में पादांत उच्चारण क्रमश: “णीनाऽऽम्', 'स्त्वाऽऽम्', 'नम्राऽऽम्' तथा 'निषिद्धऽऽह' सुनाई पड़ता है । प्लुतोच्चारण प्रायः द्वितीय तथा चतुर्थ चरण (अर्धाली) के अंत में ही पाया जाता है, प्रथम-तृतीय के अंत में नहीं ।
पादांत लघु को विकल्प से दीर्घ मानने का विधान किया गया है, किंतु संस्कृत वर्णिक छन्दों में सर्वत्र पादांत में गुरु पाये जाने के कारण सदा उन्हें गुरु माना जाता है। उद्गता जैसे मिश्रित छन्दों में जो मूलतः संस्कृत वृत्त न होकर प्राकृत वृत्तों से प्रभावित जान पड़ते हैं, प्रथम पाद के अंत का अक्षर लघु ही पाया जाता है तथा यहाँ इसे गुरु नहीं गिना जाता । जैसे
अथ वासवस्य वचनेन, रुचिरवदनस्त्रिलोचनम् ।
क्लातिरहितमभिराधयितुं, विधिवत्तपांसि विदधे धनंजयः ॥ (भारवि, १२ वाँ सर्ग) इस पद्य में 'वचनेन' का 'न' लघ ही है।
$ १३४. उक्त नियम के अपवादः - संस्कृत छन्दःशास्त्रियों ने ही कुछ ऐसे स्थल दिये हैं, जहाँ संयुक्त व्यंजन के पूर्व होने पर ह्रस्व स्वर का नित्य-दीर्घत्व, नहीं होता तथा उसे एकमात्रिक या लघु भी गिना जाता है। पिंगलछन्दःसूत्र के 'ह्रप्रोरन्यतरस्याम्' सूत्र के अनुसार 'हृ' तथा 'प्र के पूर्व का ह्रस्व स्वर लघु भी गिना जा सकता है, तथा काव्यों में इस तरह के अनेकों उदाहरण मिलते हैं :
(१) “सा मंगलस्नानविशुद्धगात्री, गृहीतप्रत्युद्गमनीयस्त्रा ।" (कुमारसं० ७.११) (२) प्राप्य नाभिह्रदमज्जनमाशु, प्रस्थितं निवसनग्रहणाय ॥ (माघ १०.६०)
१. दीर्घ संयोगपरं तथा प्लुतं व्यञ्जनान्तमूष्मान्तम् ।
सानुस्वारं च गुरुं क्वचिदवसानेऽपि लघ्वन्तम् ॥ पिंगलछन्दःसूत्र पर हलायुधवृत्ति १.१ २. 'प्रे हे वा इति पुनः पिंगलमुनेर्विकल्पविधायकं सूत्रम् ।" (छन्दोमंजरी पृ० १३)
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