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________________ प्राकृतपैंगलम् का छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन ५१७ इन दोनों स्थलों में क्रमशः 'गृहीतप्रत्युद्गमनीय' का 'त' तथा 'नाभिहद' का 'भि' संयुक्ताद्य होने पर भी लघु ही माने गये हैं। इसी तरह 'साकेत' काव्य के निम्न छंद में 'किन्तु' का 'तु' भी लघु ही है : सखि, देख, दिगन्त है खुला, तम है किन्तु प्रकाश से धुला ।। यह तारक जो खचे रचे, निशि में वासर-बीज से बचे ॥ (साकेत १०.१०) || संयुक्ताद्य (संयुक्तपर) वर्ण को कहीं-कहीं लघु मानने का विधान प्रा० पैं० में भी मिलता है : कत्थवि संजुत्तपरो, वण्णो लहु होइ दंसणेण जहा । परिल्हसइ चित्तधिज्जं, तरुणिकडक्खम्मि णिव्युत्तम् ॥ (प्रा० पैं० १.४) इसी तरह वहाँ सानुस्वार इकार तथा हिकार, शुद्ध अथवा व्यंजनयुक्त एकार तथा ओकार, और संयुक्त रेफ तथा हकार से पूर्व का वर्ण, इन सभी को विकल्प से गुरु मानने का विधान भी किया गया है । संस्कृत वर्णिक वृत्तों में पादांत को विकल्प से गुरु मानने का विधान पाया जाता है, किंतु मात्रिक वृत्तों तथा तालवृत्तों में प्रा० पैं० में इस नियम की पाबंदी नहीं मिलती। वैसे नंदियड्ड, स्वयंभू, हेमचन्द्र आदि पुराने छन्दःशास्त्रियों में इसके चिह्न मिलते हैं । उदाहरणार्थ, दोहा छंद के लक्षण में वे प्रथम तृतीय पाद में १४ तथा द्वितीय चतुर्थ में १२ मात्रा मानते है, जब कि प्रा० पैं० तथा पिछले खेवे के छन्दःशास्त्रीय ग्रंथों में इसका लक्षण १३:११, १३:११ है। नंदियड्ड आदि पुराने प्राकृतापभ्रंश छन्दःशास्त्रियों के उदाहरण देखने से पता चलता है कि वे पादांत लघु को गुरु (द्विमात्रिक) मानते हैं। विशेष विवरण के लिये आगे दोहा के संबंध में ऐतिहासिक तथा शास्त्रीय अनुशीलन देखिये । पादांत लघु को विकल्प से गुरु मानने के संबंध में संस्कृत छन्दःशास्त्रीयों की भी कुछ शर्ते थीं। वे केवल द्वितीय तथा चतुर्थ चरण के अंत में ही पादांत लघु को गुरु मानने का नियमतः विधान करते थे, जो सभी वर्णिक वृत्तों के साथ लागू होता था; किंतु प्रथम एवं तृतीय पाद के अंत में स्थित लघु को कुछ खास खास छंदों में ही गुरु मानने की रियायत थी । ये छन्द केवल उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, उपजाति तथा वसन्ततिलका ही हैं । इसीलिये साहित्यशास्त्रियों ने इन छंदों से इतर छंदों में प्रथमतृतीय पादों में लघु होने पर उसे गुरु मानने से इन्कार किया है और उस स्थल में 'हतवृत्तत्त्व' दोष माना है । जैसे, 'विकसित-सहकार-भार-हारि-परिमल एष समागतो वसन्तः' में साहित्यदर्पणकार ने 'हतवृत्तत्व' दोष माना है तथा पाठ को 'हारिप्रमुदित-सौरभ आगतो वसन्तः' के रूप में शुद्ध किया है। केशवदास ने रामचन्द्रिका में एक स्थान पर वसन्ततिलका के चारों चरणों में पादांत लघु को गुरु माना है : सीता समान मुखचन्द्र विलोकि राम, बूझ्यौ कहाँ बसत हौ तुम कौन ग्राम । माता पिता कवन कौनेहि कर्म कीन, विद्या विनोद शिष कौनेहि अस्त्र दीन ॥ (रामचन्द्रिका ३८.३) इस छंद में पादांत 'म, म' 'न, न' गुरु माने गये हैं। साथ ही 'कौन ग्राम', "कौनेहि, कौनेहि" इन तीनों पदों में क्रमशः 'न', 'ने', 'ने' का उच्चारण लघु पाया जाता है। संयुक्ताद्य 'न' को 'ग्राम' के पूर्व गुरु नहीं माना गया है तथा अन्य पदों में 'ए' का उच्चारण 'ए' पाया जाता है। १. इहिकार बिंदुजुआ, एओ सुद्धा अ वण्णमिलिआ वि लहू । रहवंजणंसंजोए परे असेसं वि होइ सविहासं ॥ प्रा० पैं० १.५ २. चउदह मत्त दुन्नि पय, पढमइ तइयइ हुँति । बारह मत्ता दो चलण, दूहा लक्खण कंति || गाथालक्षण ८४ ३. उपेन्द्रवज्रा, इन्द्रवज्रा, उपजातयः, वसन्ततिलकमित्येतेषामेव तावत् प्रथमतृतीयपादांतवर्णेषु लघुत्वस्य विकल्पेन गुरुत्वं न त्वन्येषामिति भाष्यादौ स्थितम् । द्वितीयचतुर्थपादान्तवर्णेषु विकल्पस्तु सर्वेषामपि वृत्तानां सर्वसम्मत एव । वृत्तवार्तिक टीका पद्य ५९, पृ० ३२. यत्पादान्ते लघोरपि गुरुभावः उक्तः, तत्सर्वत्र द्वितीयचतुर्थपादविषयम् । प्रथमतृतीयपादविषयं तु वसन्ततिलकादेरेव । - साहित्यदर्पण, सप्तम परिच्छेद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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