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________________ "बिखरा पराग राग फाग की गुलाल लाल भौरों के झौर अंध किरण बालिकाएँ लहरों से खेल रही थीं अपने ही मन से, पहरों से । खड़ी दूर सारस की सुन्दर जोड़ी क्या जाने क्या क्या कह कर दोनों ने ग्रीवा मोड़ी ॥ (निराला : तट पर ) कवि 'द्वैपायन' की निम्न कविता में लय के लिये अनुप्रास तथा पादमध्य एवं पादांत तुक की योजना की गई है। युवकों के वृंद अंध गंध मंदिर प्रकृति - नटी झूम उठी स्खलित चरण व्यस्त वसन आवरण पानिप की नदी चढ़ी वह चला प्रणयि - मन ।" प्राकृतपैंगलम् का छन्दः शास्त्रीय अनुशीलन ५१५ छन्द की लय वस्तुतः तीन तत्त्वों से संबद्ध है :- (१) छन्द में तत्तत् स्थान पर प्रयुक्त उदात्त अनुदात्त का स्वरप्रयोग या लघु-गुरु उच्चारण; इसी से विभिन्न प्रकार के लघु-गुरु उच्चारण के आरोहावरोह क्रम से विभिन्न 'रिदमिक पैटर्न' का जन्म होता है, इसका संकेत किया जा चुका है। (२) छन्द की विविध आरोहावरोहमूलक अक्षर-संघटना ( syllabic pattern) के बीच में या पादांत में यति का प्रयोग, तथा (३) पादांत में कखकख, कग-खघ, कखगघ, आदि किसी भी निश्चित क्रम से तुक (rime) की योजना । छन्दों की विशाल अट्टालिका की नींव के पत्थर यही तीनों हैं, इसलिये छन्दः शास्त्र की शुरूआत यहीं से माननी पड़ती है । Jain Education International अक्षर और मात्रा का लघु-गुरु विधान $ १३३. संस्कृत छन्दः शास्त्रियों ने छन्दों का विभाजन दो वर्गों में किया है- अक्षरवृत्त तथा मात्रावृत्त । अक्षरवृत्तों को वर्णवृत्त भी कहा जाता है। अक्षरवृत्तों में अक्षरों की निश्चित गणना का महत्व है, मात्रावृत्तों में मात्रा की निश्चित गणना का उदाहरण के लिये वसंततिलका वृत्त में प्रत्येक चरण में निश्चित वर्णिक गणों के क्रमसे १४ वर्णों का अस्तित्व पाया जाता है, तो गाथा (आय) वृत्त में प्रथम तृतीय चरण में १२, द्वितीय में १८ और चतुर्थ में १५ मात्रा पाई जाती हैं। इस प्रकार गाथा में अक्षरों की संख्या का निश्चित नियम नहीं है इतना होने पर भी प्राकृत मात्रावृत्तों में भी अक्षर की ह्रस्वता तथा दीर्घता का महत्त्व अवश्य है, क्योंकि उसी के आधार पर मात्रा का आकलन किया जाता है। अक्षर से तात्पर्य एक साथ उच्चरित स्वर या स्वर-व्यंजन समूह से है। अक्षर का मेरुदण्ड स्वर है, तथा स्वर का उच्चारण बिना किसी अन्य ध्वन्यात्मक तत्त्व की सहायता के किया जा सकता है, अतः अक्षर में एक स्वर का होना आवश्यक है। व्यंजन ध्वनि का उच्चारण बिना किसी स्वर की सहायता के नहीं हो पाता, अतः व्यंजन के उच्चारण के लिए पूर्व में या पर में स्वर का होना सर्वथा आवश्यक है। शुद्ध स्वररहित व्यंजन का स्वयं का अक्षर-संघटना में कोई महत्त्व नहीं है। स्वर-ध्वनियों के उच्चारण-भेद से स्पष्ट है कि ये दो तरह की पाई जाती हैं। कुछ स्वरों के उच्चारण में एक मात्रा (क्षण) लगती है, जैसे अ, इ, उ, ऋ, ए, आ; जब कि कुछ के उच्चारण में दो मात्रा का समय लगता है, जैसे आ, ई, ऊ, (ॠ) ए ओ वर्णिक वृत्तों के मगेण, नगण आदि गणों का विधान अक्षरों की इसी स्वर-दीर्घता तथा स्वरहस्वता से संबद्ध है, तथा मात्रिक वृत्तों की मात्रा गणना में भी इसका ध्यान रखना पड़ता है, क्योंकि वहाँ प्रायः ह्रस्व अक्षर (स्वर) की एक मात्रा तथा दीर्घ अक्षर की दो मात्रा मानी जाती है। संस्कृत वैयाकरणों ने तीन प्रकार के स्वरोच्चारण का संकेत किया है। :- ह्रस्व (एक मात्रिक), दीर्घ (द्विमात्रिक), तथा प्लुत (त्रिमात्रिक)। किंतु छन्दः शास्त्र में प्लुत उच्चारण की तीन मात्रायें नहीं मानी जातीं तथा संस्कृत वर्णिक वृत्तों में पादांत में उच्चरित प्लुत को भी द्विमात्रिक ही माना जाता है, इसका संकेत हम अनुपद में करेंगे। 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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