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________________ ५११ प्राकृतपैंगलम् का छन्दः शास्त्रीय अनुशीलन को भी काव्य माना, तथा कालरिज ने भी काव्य का प्रतियोगी (विरोधी) गद्य को न मानकर 'विज्ञान' को माना था; फिर भी काव्य का छन्दोबद्धता से घनिष्ठ संबंध रहा है तथा समस्त पुराना काव्य ही नहीं, विश्व के काव्य साहित्य का अधिकतम भाग छन्दोबद्ध ही है । यह इसलिये कि छन्द स्वतः काव्य के प्रेषणीय भाव को तदनुरूप 'लय' में अभिव्यक्त करता है। वैसे तो 'लय' गद्य की भाषा तथा बोलचाल की भाषा तक में पाई जाती है, फिर भी तत्तत् छन्द की 'लय' का खास काव्यगत महत्त्व है तथा गद्य कवियों तक ने कई बार पद्य या छन्द की 'लय' को पकड़कर भाव को अधिक प्रभावशाली, तीव्र तथा प्रेषणीय बनाने के लिये 'वृत्तिगंधि गद्य' का प्रयोग किया है । छन्द की 'लय' जहाँ स्वर के दीर्घ या हस्वोच्चारण की दृष्टि से संगीत से संबद्ध है, वहाँ उसका उतार-चढाव, यति, तुक (अनुप्रास तथा यमक) आदि का संबंध नृत्य के अंग-संचालन से है। अतः यहाँ छन्दोयोजना तथा लय पर दो शब्द कह देना जरूरी होगा । छन्दोयोजना और लय है $ १३२. लय का संबंध नृत्य से इसलिये जोड़ा जाता है कि इसे नृत्य की खास भेदक विशेषता माना जाता । नृत्य की प्रमुख विशेषता तत्तत् अंगोपांगादि का एक निश्चित लयात्मक क्रम से संचालन है। अंग संचालन नृत्य का खास लक्षण है, किंतु उस विशिष्ट अंग-संचालन को ही नृत्य कहा जा सकता है, जिसमें निश्चित क्षणों के अनुसार अंगों का संचालन आरोहावरोहमूलक लय में आबद्ध हो। अतः जर्मनी समाजशास्त्री ई० ग्रोस के शब्दों में "लवरहित नृत्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती; एक भी नृत्य ऐसा नहीं है जो लयहीन हो" ।" जिस तरह नृत्य की लय निश्चित क्रम में आवद्ध होती है, वैसे ही छंद की लय भी स्वर लहरी के निश्चित एवं कमिक आरोहावरोह तथा समय-सीमा के अनुरूप संयोजन से समन्वित होती है। विभिन्न भावों की अभिव्यंजना में हमारी स्वर लहरी विभिन्न लयस्थितियों का संकेत करती है। क्रोध की दशा में हमारी वाणी भिन्न लय की सूचना देती है, प्रेम, घृणा, शोक आदि की दशा में सर्वथा भिन्नभिन्न प्रकार की । संभवतः विभिन्न छन्दों की तत्तत् लय के भेद में मूलतः तत्तत् मनोभाव की भेदकता निहित है। तत्तत् वर्णिक तथा मात्रिक छंदों में तत्तत् वर्णिक या मात्रिक गणों का विधान, लघु-गुरु नियम, तुक आदि, लय तथा उसके द्वारा प्रेषणीय तत्तत् मनोभाव मनोभाव से ही संबंध रखते हैं । छन्द की लय से हमारा तात्पर्य यह है कि किसी छन्द में सबल तत्त्व तथा दुर्बल तत्त्वों का परस्पर विनिमय तथा उनकी स्थिति कैसी है, इन सबल तथा दुर्बल तत्त्वों के विनिमय तथा संयोजन का विधान किस तरह का है, तथा इनके तत्तत् वर्गों का उक्त छंद में क्या संबंध है ? 'लय' से हमारा तात्पर्य विभिन्न उच्चरित ध्वनियों या अक्षरों के क्रमिक उतार-चढाव से है जो अक्षरों के उतार-चढाव के साथ ही साथ काव्यार्थ या भाव को गतिमान् बनाते हैं, उसके भी उतारचढाव का संकेत करते हैं। यह उतार-चढाव प्रत्येक छंद में एक निश्चित समय सीमा में आबद्ध रहता है। साथ ही लयात्मक उतार-चढाव की इस समय-सीमा के प्रत्येक अंश के आरंभ तथा अंत में स्पष्टतः परिदृश्यमान कोई न कोई तत्त्व अवश्य होता है। जैसे द्रुतविलंबित के द्वितीय गण में नगण के बाद भगण का प्रथम दीर्घ अक्षर स्पष्ट इसका संकेत करता है। द्रुतविलंबित न भ भ २. लललगाललगाललगालगा इस छन्द की गति में प्रथम तीन अक्षरों के ह्रस्वोच्चारण के कारण पाठक द्रुत गति का आश्रय लेता है, तब चढाव, फिर दो क्षण उतार, फिर चढाव, फिर दो क्षण उतार और फिर एक एक क्षण बाद क्रमशः चढाव, उतार चढाव होने से छंद की गति में ‘विलंबन' पाया जाता है। इसीलिये इसका नाम द्रुतविलंबित पड़ा है। किसी भी छंद को कोमल, ललित और मधुर अथवा धीर, गंभीर और उद्धत बनाने का काम इसी उतार-चढ़ाव युक्त उच्चारण की विविध संघटना से है। वियोगिनी छंद करुण रस के लिये प्रसिद्ध है। ध्यान से देखने पर पता चलेगा कि उसकी सारी जान प्रत्येक चरण के आरंभ में प्रयुक्त दो लघु तथा एक गुरु वाला सगण है। सगण से शुरूआत ही इस छंद को करुण बना देती है। 2. A distinguishing feature of the dance is the rhythmic order of movements. There is not a single dance without rhythm. - E. Grosse: quoted by Plekhanov (Art and Social Life p. 107) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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