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प्राकृतपैंगलम् का छन्दःशास्त्रीय अनुशीलन
प्रास्ताविक
१३१. मानव संस्कृति और सभ्यता के अध्ययन के अंतर्गत कविता के विकास की कहानी बड़ी मजेदार है। आज का वैज्ञानिक युग इस बात को मानने को कतई तैयार न होगा कि पुराने कवियों (ऋषियों) के समक्ष कोई दैवी शक्ति अवतीर्ण होकर उन्हें काव्य-रचना की प्रेरणा देती थी। काव्य की विषय-वस्तु तथा भाव, अभिव्यंजना शैली, भाषा, पद-विन्यास, छन्दोविधान तथा लय उसी ने सँजोयी-सँवारी थी। आज का तर्कबुद्धि मानव अभिनवगुप्तपादाचार्य के "सरस्वत्येवैषा घटयति यथेष्टं भगवती" को ज्यों का त्यों मानने को प्रस्तुत न होगा, वह हर मसले का कोई न कोई बौद्धिक हल जो चाहता है । भाषा, काव्य, संगीत, नृत्य, छन्दोविधान और लय इन सभी को वह मानव को दयापूर्व भीख के रूप में दी हुई अति-मानव या दैवी शक्ति की दान-वस्तु नहीं स्वीकार करता, बल्कि इन्हें मानव की अपनी विकासशील स्थिति में, खुद की महेनत मशक्कत से पैदा की हुई या विकसित स्वार्जित सम्पत्ति घोषित करता है। मानव को भाषा कब मिली, कैसे मिली, यह मसला भी आज तक पूरी तौर पर हल नहीं किया जा चुका है, लेकिन इतना तो तै है कि जिस दिन मानव ने भाषा को व्यक्त रूप दिया, जिस दिन उसके विकसित ध्वनियंत्रों ने वैखरी को रूपायित किया, उसी दिन भाषा ही नहीं, भाषा के साथ-साथ प्रथम काव्य, प्रथम संगीत, तथा प्रथम वाक्-लय (speech rhythm या नृत्य) का आविर्भाव हुआ था । भाषा और उसके इन तीन सहयोगियों का विकास आदिम मानव के 'सामूहिक श्रम' को देने है या नहीं, इस विवाद में हमें नहीं पड़ना है, पर यह तो निश्चित है कि काव्य, संगीत तथा नृत्य, आदिम मानव के व्यावहारिक जीवन की आवश्यकता की पूर्ति के लिये विकसित हुए थे, बाद की मानव सभ्यता की तरह उनका महत्त्व केवल मनोरंजन या मन बहलाव की चीज के रूप में न था । इसीलिये जर्मन समाज-शास्त्री ब्यूचर ने संगीत तथा काव्य का श्रम से घनिष्ठ संबंध जोड़कर आदिम विकास-स्थिति में उन्हें एक ही प्रेरणा की देन माना है। प्राचीन युग के साहित्य में सर्वत्र काव्य तथा संगीत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, वहाँ संगीतरहित काव्य तथा काव्यरहित संगीत जैसी चीज नहीं मिलती और एडम स्मिथ जैसे समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि इनके साथ तीसरा तत्त्व-नृत्य-भी नियत रूप से संलग्न था।' काव्य को, छन्दोविधान तथा लय वस्तुत: संगीत एवं नृत्य की ही देन हैं, और 'छन्द' काव्य का वह अंग है, जो इसका संकेत करता है कि आरंभ में काव्य तथा संगीत में कोई भेद न था । प्रो० थॉम्सन ने जो बात ग्रीक कविता के लिये कही है, वह वस्तुतः सभी देशों की प्राचीन कविता (लिखित, अलिखित, सभ्य तथा आदिम) के साथ लागू होती है कि, "प्राचीन ग्रीस में कविता का संगीत के साथ गठबंधन हो गया था । वहाँ वाद्य संगीत - शब्दहीन संगीत-जैसी चीज नहीं पाई जाती, तथा उत्कृष्ट कविता का अधिकांश संगीत के सहयोग के लिये निबद्ध किया जाता था ।"३ यह बात आज भी लोक-साहित्य के काव्यों के साथ पूरी तरह लागू होती है, तथा जैसा कि हम संकेत करेंगे प्राकृत और अपभ्रंश के छन्दों के विकास की कहानी भी इस मान्यता की पुष्टि ही करती है। अपभ्रंश भाषा में निबद्ध काव्यों के तालच्छंद इस बात पर जोर देते हैं कि अपभ्रंश कवि को कुशल संगीतज्ञ होना चाहिए । हिंदी का मध्ययुगीन भक्तिकाव्य भी संगीत के आलवाल में लिपटा हुआ है।
संगीत तथा छन्द दोनों की वास्तविक आत्मा "लय" है। "लय" के अभाव में न तो काव्य का छन्दोविधान ही होगा, न संगीत ही । संस्कृत आचार्यों ने काव्य को सर्वथा पद्यबद्ध न मानकर गद्यबद्ध रागात्मिकावृत्ति वाली कृतियों
१. "that in the first stage of their development, work, music, and poetry were most intimately connected
with one another, but that the basic element of this trinity was work, while the other two elements
had only a subordinate significance." - Buecher quoted by Plekhanov (Art and Social Life p. 49). २. Egerton Smith : The Principles of English Metre pp. 5-6 3. "One of the most striking differences between Greek and English poetry is that in ancient Greece
poetry was wedded to music. There was no purely instrumental music - music without words; and a great deal of the finest poetry was composed for musical accompaniment."
- George Thompson : Marxism and Poetry, p. 1
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