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शब्द- समूह
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स्थान पर अक्षरः भार की क्षतिपूर्ति के लिये पाया जाता है। '√जुज्झ', 'बुज्झ' जैसे धातु रूप य-विकरण युक्त रूप 'युध्यते, बुध्यते' जैसे रूपों का विकास हैं, जहाँ मूल धातु V+युध्य्- V-बुध्य्- मानना होगा। इसी तरह 'क', 'वड्ड' भी मूलतः तद्भव रूप ही हैं, जिनका विकास कृष्, वधू के निष्ठा रूपों "कृष्ट > *कट्टु > कह वृद्ध > वढ्ढ से मानना होगा । कहना न होगा, म० भा० आ० ने निष्ठा रूपों को ही धातु रूप बना लिया है । लग्ग, भग्ग जैसे धातु रूप भी निष्ठा प्रत्यय जनित रूपों की ही देन है; लग्-लग्न लग्ग, √भञ्ज-भन्न भग्ग इसी तरह पलह पेर पेल्ल जैसे धातुओं का संबंध भी प्रा० भा० आ० परा+ √वृत्> परावर्तते > *पलाअट्टइ पलट्टइ - पल्लट्टइ, प्र + ईर् प्रेरयते > पेल्लइ - पेरइ से जोड़ा जा सकता है। म० भा० आ० तथा उससे विकसित न० भा० आ० धातुज आदेशों की कहानी बड़ी मजेदार है। इनका विस्तृत भाषावैज्ञानिक अध्ययन अपेक्षित है। यहाँ प्रा० चैं० की भाषा के संबंध में इस विशेषता पर केवल दिङ्मात्र निर्देश किया गया है ।
प्रा० पैं० में विदेशी शब्द
8] १३० प्रा० पै० की भाषा में विदेशी शब्दों का अस्तित्व नगण्य है। केवल आधे दर्जन के लगभग विदेशी शब्द मिलते हैं ।
सुलताण (१.१०६), अरबी सुलतान.
खुरसाण (१.१४७), खुरासाण (१.१५७) खुरासान देशनाम
ओल्ला (१.१४७), अरबी 'उलामा'.
साहि (१.१५७), फारसी 'शाह'.
हिंदू (१.१५७), फा० हिंदू (<सं०] सिंधु).
तुलुक (१.१५७) तु० तुर्क
णिक (२.१९१) फा० 'नीकह' (हि० नीका, राज० नीको)
I
पुरानी हिन्दी के ग्रन्थों में विदेशी शब्दों की दृष्टि से प्रा० ० अत्यधिक दरिद्र है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण में भी विदेशी शब्द बहुत कम हैं, इनकी संख्या केवल ७ है। वर्णरत्नाकर में अवश्य अधिक शब्द हैं, इनकी संख्या कुछ अधिक है। विदेशी शब्दों की दृष्टि से पुरानी हिन्दी की समृद्धतम रचना कीर्तिलता है अरबी और फारसी के कई शब्द कीर्तिलता में पाये जाते हैं, जो तद्भव और तत्सम शब्दों की ही भाँति प्रत्ययादि का ग्रहण करते हैं। प्रा० पै० का 'पाइक्क' (१.१३४ तथा आधे दर्जन बार प्रयुक्त) शब्द मूलतः विदेशी है, किन्तु यह पुरानी फारसी से ही म० भा० आ० में आ गया था तथा इसका प्रयोग प्राकृतकवि राजशेखर तक ने किया है। प्रा० पै० में 'पाइक' शब्द सीधे फारसी से न आकर म० भा० आ० से ही आया है ।
१. Uktivyakti (Study) $48. pp. 22-23
3. Varnaratnakara: (Intro.) § 59, P. Ix-lxi
३. डा. बाबूराम सक्सेना कीर्तिलता (भूमिका) पृ० ४३-४५ (नागरीप्रचारिणी सभा, काशी).
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