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प्राकृतपैंगलम्
Vपिट्ट, पिट्टइ (१.१८०) हि० रा० 'पीटना, पीटबो'. Vउड्ड, उड्डाविअ (१.१९८), 'उड़ना'. Vमोड, मोडिअ (१.१९८), मोड़ना'. Vचाह, चाहणा (२.७५), 'चाहना'. छाल (छाला) (२.७७), 'छाल'. वप्पुड़ा (२.९१), 'बेचारा', राज० 'भापड़ो'.
ओग्गर (२.९३), 'खास प्रकार का भात'. मोइणि (२.९२) 'खास प्रकार की मछली'. णालिच (२.९३), 'एक प्रकार की हरी साग'.
गच्छा (२.९३), गाछ (२.१४४), 'पेड़' (क्या यह सं० गुच्छ का विकास है, किंतु संभवत: गुच्छ शब्द भी सं० बाहर की देन है।)
णोक्खा (२.१०५), 'अच्छा'. Vखुंद, खुंदी (२.१११), 'खूदना' राज० ' दबो'. खेह (२.११०), 'धूल', हि० 'खेह'. Vछोड़, छोड़िआ (२.१११), 'छोड़ना', राज० 'छोड़बो'. Vथक्क, थकंतु (२.१३२), 'थकना', राज० 'थाकबो' Vवुल्ल, वुल्लउ (२.१३६), 'बोलना'. Vल-ले, लेहि (१.९), लउ (२.१३६), लिज्जिअ (२.१४४), 'लेना'. Vसुज्झ, सुज्झे (२.१४२), 'सूझना' (क्या यह सं० 'शुध्य्' का तद्भव रूप है ?) Vओड्ड, ओड्डो (२.१४७), 'हटना, परे होना'. Vहर, हेरंता (२.१७५), 'देखना' राज०, ब्रज० 'हेरबो'. Vफुट्ट, फुट्टइ (२.१८३), 'फूटना'. Vटुट्ट, टुट्ट (२.१८३), 'टूटना'. णाइ (२.१६९), हि० राज. नाइँ, 'समान, उपमावाचक शब्द'. टोप्परु (२.२०९), 'टोप'. वप्प, वप्पह (२.२११), 'बाप, पिता'.
म० भा० आ० में ऐसे भी अनेक शब्द मिलेंगे, जिन्हें प्राचीन वैयाकरणों ने किन्ही संस्कृत रूपों का आदेश मान लिया है। प्रश्न है, ऐसे धातुओं को देशी माना जाय या नहीं ? प्राचीन प्राकृत वैयाकरण संभवतः इन्हें तद्भव मानने के पक्ष में न थे, और इनकी गणना देशज श्रेणी में ही करते होंगे'; किन्तु भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इनमें से कई देशज शब्द तथा धातु न होकर तद्भव रूप ही जान पड़ते हैं । जैसे 'Vकृ (करोति)' का 'Vकुण'२ रूप वस्तुत: 'कृ' के नवम गण वाले रूप 'कृणाति' > कुणइ' का विकास है। इसी तरह 'जि' (जयति) का 'जिण' रूप भी 'जि' के नवम गण वाले रूप 'जिनाति > जिणई' का विकास है। भले ही ये रूप नवम गण के अंतर्गत पाणिनीय संस्कृत में न रहे हों, पर वैदिक काल की कथ्य भाषा में मौजूद थे तथा वहीं से ये म० भा० आ० में भी आये हैं । अतः इन्हें शुद्ध तद्भव मानना ही ठीक होगा। इसी तरह ' जल्प्' धातु का '/जंप' रूप (जंपइ) वैयाकरणों के मतानुसार आदेश हो, भाषावैज्ञानिक के मत से इजल्प >*जप्प >*जंप के क्रम से विकसित शुद्ध तद्भव रूप है, जहाँ अनुस्वार का प्रयोग 'ल' > 'प' के
१. दे०-हेम० ८.४.२-२११
२. कृगे: कुणः । - वही ८.४.६५
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