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________________ २८] प्राकृतपैंगलम् [१.५२ में रा० में पाया जाता है, इसका विकास 'चउप्पण' से होगा । हि० चोवन का विकास 'चउवण' < 'चउवण्ण' से होगा। वस्तुतः 'चउअण्ण-चउवण्ण' दोनों रूप एक ही हैं, प्रथम रूप का ही 'व' श्रुति वाला रूप दूसरा है, इसीके संयुक्ताक्षर 'पण' को सरल करने पर 'चउअण-चउवण' रूप बनेंगे। गाहाइ< गाथायाः (गाहा+इ स्त्रीलिंग संबंधकारक ए० व० की प्रा० अप० विभक्ति )। सत्तावणी < सप्तपंचाशत् (सत्त+वण्ण, सत्ता+वण्ण) प्रा०प०रा० सत्तावन, टेसिटोरी ६८०, हि० रा० सत्तावन, यहाँ, 'ई' स्त्रीलिंगवाचक प्रत्यय है। पलट्टि / पलट्ट+इ । (पूर्वकालिक क्रिया (एब्सोल्युटिव) रूप । 'इ' के विकास के लिए दे० ६ ४१-४२ । किज्जइ-कर्मवाच्य वर्तमान (प्र० पु० ए० व०) रूप; कि (/कर का दुर्बल रूप)+इज्ज+इ) । सट्टि < षष्ठि (अर्धमा० अपभ्रंश रूप दे० पिशेल $ ४४६ । पु०प०रा० साठि; टेसिटोरी ६ ८०; हि०रा०साठ)। बासट्ठि< द्वाषष्ठि । (पिशेल ६४४६, बासट्टि-वावठ्ठि (अर्धमा०, जैनमहा०); हि० बासठ, रा० बासठ (उच्चारण 'बासट') चउसठ्ठि < चतुःषष्ठि (चउसर्द्धि-चोसट्ठी-चउवर्द्वि, अर्धमा० जैनम०) पिशेल ६ ४४६ । प्रा० प० राज० चउसट्टिचउसठि (टेसिटोरी ६८० ) । हि० चोसठ; राज० चोसठ (उ. चोसट) । अह गाहू पुव्वद्धे उत्तद्धे सत्तग्गल मत्त वीसाईं। छट्ठमगण पअमज्झे गाहू मेरु व्व जुअलाइँ ॥५२॥ [गाहू] ५२. गाहू छंदगाहू छंद के पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध दोनों में २७ मात्रा होती हैं। दोनों अर्धालियों में छठा गण दो लघु (मेरु) होता है। गाहू छंद में इस तरह चार चरणों में क्रमशः १२, १५ (२७), १२, १५ (२७) मात्राएँ होती हैं। संस्कृत छन्दोग्रन्थों में इसीको 'उपगीति' कहा जाता है। इसका लक्षणोदाहरण श्रुतबोध में यह है: आर्योत्तरार्धतुल्यं प्रथमार्धमपि प्रयुक्तं चेत् । कामिनि तामुपगीति, प्रकाशंयते महाकवयः ।। टिप्पणी-पव्वद्धे < पूर्वार्धे । उत्तद्धे < उत्तरार्धे; इसका वास्तविक विकास 'उत्तरद्ध' होगा; यह रूप ६३ में देखिये; किंतु पुव्वद्ध के साम्य पर 'र' का लोप कर उत्तद्धे रूप बन गया है। यह 'मिथ्यासादृश्य' का एक उदाहरण है। इन दोनों में 'ए' अधिकरण ए० व० विभक्ति है। सत्तग्गल < *सप्ताग्रलाः । वीसाई < विंशति; पिशेलने वीसाइ-बीसाइँ दोनों रूपों का संकेत किया है ४४५ । छट्टम < *षष्ठम 'क्रमात्मक-संख्यावाचक विशेषण' (ओर्डिनल) । इसके छ?, छट्ठा रूपों का संकेत पिशेल ने किया है $ ४४९ । वस्तुतः यह रूप 'छ' के साथ 'ठ' तथा 'म' दोनों प्रत्यय साथ लगाकर बना है। यह भी मिथ्यासादृश्य का उदाहरण है, जो पंचम, सप्तम, अष्टम, नवम के सादृश्य पर बना है। अप०-अवहट्ठ में इसका वैकल्पिक रूप छ?छट्ठउ भी मिलता है, जिसका प्रा० प० राज० रूप 'छ?उ' ऋषभदेवधवलसंबंध मे टेसिटोरी ने संकेतित किया है ६ ८२। इसीका विकास गु० छठो, रा० छट्टो, हि० छठा के रूप में हुआ है। 'छट्ठम' का विकास हि० छठवाँ, राज० छठवाँ (छठवू के रूप में मिलता है। पअमज्झे < पदमध्ये । मध्ये > मज्झे से ही जो पहले समस्त पद के उत्तरपद के रूप में प्रयुक्त होता रहा है, हि० माँझि, माँहि, में का विकास हुआ है। जहा, चंदो चंदण हारो ताव अ रूअं पआसंति । चंडेसरवरकित्ती जाव ण अप्पं णिदंसेड़ ॥५३॥ [गाह] ५२. पुव्वद्धे-A. पुव्वः । वीसाइँ-B.O. वीसाइ, C. वीसाई, D. वीसाइं । छट्ठम -C. छट्ठम । “मज्झे-B. पअमज्जे; पअमझे (=पअमझ्झे), K. 'मझ्झे । गाहू-D. गाहु । मेरुव्व-D. मेरूव्व । जुअलाइँ-A, जुअलाइं, B. C. O. जुअलाइ, D, जुगलाई । ५३. D. प्रतौ 'जहा' इति पदं न प्राप्यते । रूअं पआसंति-A. "पआसेइ, C. रुअ प्पआस्सेइ । कित्ती-C. o. कीत्ती । जाव ण अप्पं णिसंदेइ-A. जाव ण अप्पं णिअंसेइ, B. जाव अप्पाणं ण दंसेइ, C. जाव ण अप्पाण स्सेदेई, D.O. जाव अ अप्पं ण दंसेइ। ५३-C. ४७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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