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________________ ४९२ प्राकृतपैंगलम् °इअ-करिअ (२.१९२), करिअइ (२.२०३), करिए (१.५), पढिअइ (१.१४६) । इनके अतिरिक्त कुछ अपवाद रूप (irregular forms) भी पाये जाते हैं, जो संस्कृत कर्मवाच्य रूपों से बने हैं :दीसइ (१.१९६) < दृश्यते (दे० पिशेल $ १४१), जाणीए (२.११) < ज्ञायते (छन्दोनिर्वाहार्थ आत्मनेपद), लेखिए (२.१३) < लिख्यते (छन्दोनिर्वाहार्थ आत्मनेपद), जंपीए (२.८८) जल्प्यते (छन्दोनिर्वाहार्थ आत्मनेपद) । साथ ही केवल कर्मवाच्य धातु रूप 'दीस' (२.३०) < दीसइ < दृश्यते का प्रयोग भी संकेतित किया जा सकता है। णिजंत रूप ११०. प्रा० भा० आ० में णिजंत रूपों का चिह्न 'आय, अय (पाठयति, जनयति) तथा 'आपय, अपय (दापयति, स्नपयति) था । म० भा० आ० में आकर 'आय- अय वाले चिह्न का विकास °ए तथा 'आपय, अपय वाले चिह्न का विकास °आव- आवे (कभी कभी अव) पाया जाता है । (दे० ६ ५५१) कारेइ < कारयति, पाढेइ < पाठयति, हासेइ < हासयति, ठावेइ < स्थापयति, आखावेइ (अर्धमागधी) < आख्यापयति, णिव्वापेन्ति < निर्वापयन्ति (वही पृ० ३७६). अपभ्रंश में प्राय: ये ही रूप पाये जाते हैं । न० भा० आ० में आकर ये आव- आवे केवल आव्- आ रह गये हैं। संदेशरासक में केवल 'आव्, 'अव के रूप मिलते हैं, वैसे अपवाद रूप में 'सारसि' (स्मारयसि) रूप निम्न पंक्ति में मिलता है, जो संस्कृत का अर्धतत्सम रूप है। सारस सरसु रस्हि किं सारसि, मह चिर जिण्णदुक्खु किं सारसि । (संदेशरासक १५६) (सारस सरस शब्दों में कूजन कर (रस) रहे हैं, हे सारसि, क्या तू (मुझे) अपने पुराने (जीर्ण) दुःख का स्मरण करा रही है (सारसि = स्मारयसि)। प्रा० पैं० से णिजंत रूपों के उदाहरण निम्न हैं : (१) आव-वाले रूप :- दिखावइ (१.३८) < *दक्षापयति; चलावइ (१.३८) < *चलापयति, चलावे (२.३८) <*चलापयति । (२) धातु के मूलस्वर (radical vowel) को दीर्घ बनाकर निर्मित णिजंत रूप बहुत कम हैं। इनमें कुछ तो अर्थ की दृष्टि से प्रेरणा का भाव ही द्योतित नहीं करते, यद्यपि व्युत्पत्ति की दृष्टि से इनका संबंध प्रेरणार्थक रूपों से ही है : कारिज्जसु (१.४०) <*कारयस्व (यह वस्तुत: विधि म० पु० ए० व० का रूप है)। नाम धातु १११. प्रा० पैं० की भाषा में कुछ छुटपुट नाम धातु भी मिलते हैं। संस्कृत में नाम धातु में प्रायः -आय, -आपय् को जोड़ कर क्रिया पद बनाया जाता है तथा ये धातु चुरादिगणी होते हैं । प्राकृत में नाम धातुओं का विकास या तो इन्हीं चुरादिगणी रूपों से हुआ है, या कुछ नये भी बनाये गये हैं। न० भा० आ० में नाम धातुओं का प्रयोग बहुत बढ़ चला है, किन्तु प्रा० पैं० में बहुत कम नाम धातु पाये जाते हैं। (१) वेलावसि (२.१४२, Vवेलाव < *Vवेलापय्-) । (२) वखाणिओ (२.१७४, २.१९६ Vवखाण- <*/व्याख्यानयति-*व्याख्यानयते) । (३) जणमउ (१.१४९ /जणम < */जन्म, जन्मयते)। (४) डुलइ (२.१९३ Vडुल-*डुलाअइ < *डोलाअइ < *दोलाय, दोलायते) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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