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पद-विचार
४९३ वर्तमानकालिक कृदंत
११२. प्रा० भा० आ० में वर्तमानकालिक कृदंत परस्मैपदी धातुओं में 'अन्त' (शतृ) (< प्रा० भा० यू० *एन्त) तथा आत्मनेपदी धातुओं में मान-आन (शानच्) हैं। म० भा० आ० में आत्मनेपदी धातुओं के प्राय: लुप्त होने के कारण 'माण (< मान) वाले रूप भी कम पाये जाते हैं। प्राकृत अन् (अन्त) का अंतो रूप पाया जाता है :- हसंतो, पढंतो। स्त्रीलिंग में इसके °अन्ती रूप पाये जाते हैं :- संती (जैनमहा०), अपावंती < अप्राप्नुवंती; हुवंती, पेक्खंती, गच्छंती, भणंती। प्राकृत में °माण (पु०), 'माण-"माणी (स्त्री०) वाले रूप भी मिलते हैं। पिशेल ने इनके उदाहरण प्रायः अर्धमागधी तथा जैनमहाराष्ट्री कृतियों से दिये हैं, अत: ऐसा जान पड़ता है कि या तो ये किन्ही विभाषाओं में ही पाये जाते थे या
जैन प्राकृतों के आर्ष (आर्केक) प्रयोगों का संकेत करते हैं। उदा०-पेहइ पेहमाणे, पासमाणे पासइ, सुणमाणे सुणइ, मुच्छमाणे मुच्छइ । संलवमाणी, उवदंसेमाणी, पच्चणुभवमाणी, परिहायमाणी; महाराष्ट्री-भणमाणा, जंपमाणा, मज्जमाणाए (< मज्जमानया)। अपभ्रंश में प्रायः अन्तवाले रूप ही मिलते हैं, 'माण-माणा वाले छुटपुट रूपों को टगारे ने प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड) माना है। अल्सदोर्फ ने "हर वाले रूपों को कुमारपालप्रतिबोध में वर्तमानकालिक कृदंत का रूप माना है, पर टगारे ने उन्हें वर्तमानकालिक कृदंत नहीं माना है, अपितु वे 'ताच्छील्य'-बोधक प्रत्यय के रूप हैं।
संदेशरासक में पु० में इसके अन्त ( अंतय स्वार्थे रूप) रूप तथा स्त्री० में अंती रूप मिलते हैं। (दे० भायाणी : संदेशरासक भूमिका ६ ६४) प्रा० पैं० में ये °अंत, अंती रूप मिलते हैं। कथ्य भाषा में इसके अत, अती रूप भी चल पड़े होंगे जिनका विकास अंत > अँत > अत, °अंती > अँती > अती के क्रम से माना जायगा । उक्तिव्यक्ति प्रकरण में °अंत तथा °अत दोनों तरह के रूप मिलते हैं :- 'करत, पढत, पयंत (=पचंत) (२० । ११), सोअन्त (२१ । ३), बाढत देंत (३४ । १), न्हात (३६ । २४) । (दे० डा०, चाटुा : उक्तिव्यक्ति (स्टडी) $ ८१).
प्रा० पैं० की भाषा से इनके उदाहरण निम्न हैं। पुल्लिंग रूप :'अंतो (प्राकृत रूप):- जग्गंतो (१.७२),
°अंतउ (अपभ्रंश कर्ता ए० व० रूप) :- दुक्कंतउ (१.१५५), उटुंतउ (१.१५५), हसंतउ (२.१४९), चलंतउ (१.१५९)।
•अंत (प्रातिपदिक रूप) :- उल्हसंत (१.७), वलंत (१.७), चलंते (=चलतिं, अधिकरण ए० व० १.०६), फुरंता (=फुरंत < स्फुरन् १.१८), खेलंत (१.१५७), विअसंत (२.९२) ।
एक स्थान पर 'ए' वाला तिर्यक् रूप भी मिलता है :- होते (१.९१ < भवता, खड़ी बोली, होते) । छंदोनिर्वाहार्थ दीर्घाकृत रूप :- संता (२.५९), चलंतआ (२.५९), पलंतआ (२.५९), वाअंता (२.८१) ।
केवल एक स्थान पर नपुंसक रूप मिलता है, जिसे हम छन्दोनिर्वाहार्थ अनुस्वार वाला रूप समझना ज्यादा ठीक समझते हैं :- ‘होतं' (=हात < भवन् २.४१)। . स्त्रीलिंग रूप :
'अंती :जुझंती (२.४२) ।
पुरानी राजस्थानी में अंत, अंती वाले रूप मिलते हैं; किंतु साथ ही अत, अती वाले रूप भी पाये जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि कथ्य भाषा में मध्यकालीन राजस्थानी में अत वाले रूप ही प्रचलित रह गये हैं, खड़ी बोली, ब्रज आदि में भी यही है । मध्यकालीन राजस्थानी के दोनों तरह के उदाहरण ये हैं :
१. Pischel 8560 3. ibid $ 563
५. ibid $147, p. 314 Jain Education International
२. ibid $561 ४. Tagare $ 147, p. 314
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