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पद-विचार
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प्राकृतपैंगलम् में हमें निम्न रूप मिलते हैं :ए०व०
ब० व० अन्य पुरुष १. अइ (करइ)
१. अंति (कुणंति २.११२) २. ए. (करे)
२. "ए (सद्दे २.७९) ३. शून्य रूप. (कर)
३. शून्य रूप (पल १.१५६) मध्यम पुरुष १. सि (दमसि १.१४७)
x (इहि, हु). २. हि (जाणहि १.१३२) उत्तम पुरुष १. "मि, °आमि. (भणमि १.२०५)
x (आहि- अहिं) २. °अउ (अ) (धसउ १.१०६) (१) अन्य पुरुष ए० व०
अन्य पुरुष ए० व० में प्रा० ० की भाषा में तीन तिङ् विभक्ति चिह्न पाये जाते हैं। (१) अइ म० भा० आ० का चिह्न है, जिसका विकास प्रा० भा० आ० के प्र० पु० ए० व० चिह्न °ति (भवति, भरति, पठति आदि में प्रयुक्त) से हुआ है। अइ या 'इ का यह विकास प्राकृतकाल में हो गया था तथा इसकी स्थिति प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी में अपरिवर्तित रूप में पाई जाती है। संदेशरासक (दे० भमिका ६ ६२), उक्तिव्यक्तिप्रकरण (दे० भूमिका ६७१), तथा वर्णरत्नाकर (दे० भूमिका ६ ४७) में यह इसी रूप में पाया जाता है; वैसे उक्तिव्यक्ति में शून्य या 'अ वाले रूप अधिक पाये जाते हैं जिनका उल्लेख हम आगे करेंगे, वहाँ अइ वाले रूप बहुत कम पाये जाते हैं । अइ वाले रूप बाद तक पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में साथ ही पुरानी अवधी में भी पाये जाते हैं । पुरानी पश्चिमी राजस्थानी के उदाहरण ये हैं :
(१) षान भणइ कुणि कारण आव्या, कहउ तुम्हारउं काज (कान्हडदेप्रबन्ध १.१४४) (२) निति काठगढ षाई करइ, राती वाहि निति उतरइ (वही २.१६२) (३) हियडा भीतर प्रिय वसइ, दाझणती डरपाहि । (ढोला मारू रा दोहा १६०) (४) जिणि दीहे पाळउ पडइ (वही २८३)
पुरानी अवधी से °अइ वाले उदाहरण ये दिये जा सकते हैं :- सुख पावइ मानुस सबइ सबको होइ निबाह' (नूर मुहम्मद) ताको सरन ताकि जो आवइ (वही), बहइ न हाथु दहइ रिस छाती (तुलसी) ।
डा० सक्सेना ने बताया है कि जायसी तथा तुलसी में अइ वाले रूप कम मिलते हैं, जबकि इसके प्राणतावाले (एस्पिरेटेड) अहि वाले रूप अधिक । नूरमुहम्मद में केवल °अइ वाले रूप ही मिलते हैं ।
प्रा० पैं० में इसके अनेकों उदाहरण हैं, कुछ निम्न हैं :
भणइ (१.९४), चलइ (१.९६), कहइ. (१.१०२), होइ (१.१०५), रहइ (१.१११), बढइ (१.१२०), कुणइ (१.१३४), भमइ (१.१३५), वहइ (१.१३५), हणइ (१.१३५), पलइ (१.१४४), पीडइ (१.१४४), संतासइ (१.१४४), लोलइ (१.१७८), लोट्टइ (१.१८०), पिट्टइ (१.१८०), लुलइ (१.१९०), टुट्टइ (१.१९०).
(२) "ए वाले रूपों का विकास अइ वाले रूपों से ही हुआ है :- ए < 'अइ < 'ति । °ए वाले रूपों का संकेत तगारे ने अपभ्रंश में किया है । (दे० तगारे १३६ पृ० २८५) प्रा० पैं० में इसके उदाहरण निम्न हैं :
आवे (२.३८), चलावे (२.३८), णच्चे (२.८१), जंपे (२.८८, २.११४), करे (१.१९०),
(३) शून्य रूप; इसकी उत्पत्ति के विषय में दो मत हैं :-प्रथम मत के अनुसार इसे शुद्ध धातु रूप (स्टेम फोर्म) माना जा सकता है, द्वितीय मत के अनुसार इसका विकास °ति > °अइ° > °अ के क्रम से मानना होगा । डा० चाटुर्ध्या द्वितीय मत के पक्ष में हैं। उक्तिव्यक्ति प्रकरण के वर्तमान प्र० पु० ए० व० रूप 'कर' की उत्पत्ति वे यों मानते हैं :
१. Saksena : Evolution of Awadhi 8301, p. 257
२. Utkivyakti : (Study) 871, p. 57 Jain Education International
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