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प्राकृतपैंगलम् प्रा० भा० आ० करोति, *करति > म० भा० आ० करइ > पुरानी कोसली करइ (जो कम पाया जाता है), कर.
प्रा० ० में ये अ या शून्य वाले रूप बहुत मिलते हैं, कुछ ये हैं :- पसर (१.७६), हो (१.१८१, ९४), भण (१.१०८), देक्ख (१.१०८), णघ (१.११९), बुज्झ (१.१२६), फुल्ल (१.१३५), वह (२.४०), दह (२.४०), हण (२.४०), बरस (१.१६६), कर (२.१४).
इनके अतिरिक्त एक उदाहरण उ वाला भी मिलता है :- कहु (१.१५६) < कथयति । इस उ का सम्बन्ध कर्ता कारक ए० व० के सुप् प्रत्यय °उ से मजे से जोड़ा जा सकता है, यह चिह्न मध्य अवधी में भी है। (२) अन्य पुरुष ब० व०
अन्य पुरुष व० व० में प्रा० पैं० में °अन्ति, °ए, तथा शून्य रूप मिलते हैं। इनमें °ए तथा शून्य रूपों की उत्पत्ति अन्य पुरुष ए० व० के रूपों से भी मानी जा सकती है, जिनका प्रयोग ब० व० में भी होने लगा है। अन्त वाले रूप प्रा० भा० आ० °अंति (आ० भा० यू० *एन्ति, *आन्ति) से सम्बद्ध हैं । संदेशरासक में भी प्राकृत अंति वाले रूपों के साथ साथ अन्य पु० ब० व० में अइ वाले रूप भी मिलते हैं, वैसे इनका अनुपात २४ : १० है। उक्तिव्यक्तिप्रकरण में दोनों तरह के रूप नहीं मिलते, वहाँ इसका तिङ् चिह्न 'ति (करति) है। इस °ति का विकास डा० चाटुा ने प्रा० भा० आ० °अन्ति से माना है। प्रा० भा० आ० कुर्वन्ति, *करन्ति > म० भा० आ० करंति (प्रा० पै० में यह रूप है) > *करँति > पुरानी कोसली करति । वर्णरत्नाकर की पुरानी मैथिली का चिह्न सर्वथा भिन्न है। यह -'थि' (अछथि, छथि, हॉथि, होथि) है; इसका सम्बन्ध उक्तिव्यक्ति के 'ति' से जोड़ा जा सकता है, पर प्राणतांश (एस्पिरेशन) एक समस्या है। डा० चाटुा ने प्रश्न किया है कि क्या इसका कारण स्वार्थे अव्यय 'हि' तो नहीं है, जो अवधारण के लिए प्रयुक्त होता है?
पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में इसमें हि, अह प्रत्यय पाये जाते हैं, जो ए० व० ब० व० में समान रूप से प्रयुक्त होते हैं :- जाहि, खाहि, डरपाहि (ढोला मारू रा दोहा)। पुरानी अवधी में इसके सानुनासिक रूप मिलते हैं। वहाँ ए० व० तथा ब० व० के रूपों में यह भेद है कि ए० ब० में अनुनासिक रूप होते हैं, ब० व० में सानुनासिक - °अइ, 'अहि (साथ ही उ) (ए० ब०), 'अहिँ, 'अइँ (ब० व०) । इनमें जायसी में केवल हिँ वाले रूप मिलते हैं, तुलसी में हिँ वाले रूप अधिक पाये जाते हैं, "इँ वाले कम; नूरमुहम्मद में इँ वाले रूप अधिक हैं ।
कीन्हेसि पंखि उडहिँ जहँ चहहिँ (जायसी) : बसहि नगर सुंदर नर नारी (तुलसी) : मन कुपंथु पगु धरइँ न काउ (तुलसी) : ।
एक दिस बाँधे तुरइ विराज' (नूर महम्मद) : ब० व० में 'हिँ' वाले रूपों का विकास'-इ' के रूप में भी हो गया है, जहाँ ए० व० तथा ब० व० रूपों का कोई भेद नहीं रहा है। (दे० अनुशीलन ५५) प्रा० पैं. में इनके विकसित रूप 'हिँ >-इ> (अ) इ> ए विभक्ति चिह्न वाले ब० व० रूपों में देखे जा सकते हैं।
प्रा० पैं० की भाषा से अन्य पु० ब० व० के विभिन्न उदाहरण ये हैं :
(१)-न्ति, होंति (१.१३ तथा अनेकशः), पसंति (१.५२), वंदंति (१.६९), कुणंति (२.११७), रुंधति (१.६९), पढंति (२.१५०), चिट्ठति (२.१२१), घोलंति (१.१८१), थक्कंति (२.१३२) ।
(२) -ए।
गज्जे (२.१८१ < गर्जन्ति), सद्दे (२.१८१ < शब्दायन्ते), फुले (२.१८३), खाए (२.१८३), सोहे (२.१८२ < शोभन्ते)।
१. Uktivyakti : (Study) 871 २. Varnaratnakara : (Intro.) $ 16. p. 64
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