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प्राकृतपैंगलम् ६१०२. प्रा० भा० आ० में दो पद मिलते हैं :- परस्मैपद तथा आत्मनेपद । प्राकृत में ही आत्मनेपद प्रायः कम व्यवहत होने लगा है। अपभ्रंश में आकर तो प्राकृत के रहे सहे आत्मनेपदी रूप लुप्त हो गये हैं। प्रा० पैं. की पुरानी पश्चिमी हिन्दी में आत्मनेपदी रूप भाषा की निजी विशेषता नहीं हैं। वैसे यहाँ अपवाद रूप में कतिपय आत्मनेपदी रूप देखे जाते हैं। ये आत्मनेपदी रूप छन्दोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त हुए हैं तथा इनमें से अधिकांश प्रायः चरण के अंत में पाये जाते हैं, जहाँ किसी छंद विशेष के पादान्त में दीर्घ अक्षर की अपेक्षा होती है। प्रा० पैं० में निम्न आत्मनेपदी रूप मिलते
सोहए (१.१५८), मोहए (१.१५८), दीसए (१.१८६), किज्जए (१.१८६), चाहए (१.१८६), मोहए (१.१८६), जाणए (१.१८८), दीसए (१.१८८), वरीसए (१.१८८), जाणिए, (२.१३१), लक्खए (१.१९९), पेक्खए (१.१९९), जाणीए (२.११), लेखिए (२.१३), जंपीए (२.८८), मुणिज्जए (२.१५८), भणिज्जए (२.१५८), दीसए (२.१६८), वट्टए (२.१६८)।
संदेशरासक में भी प्रो० भायाणीने 'भणे' (९५; भणामि), 'दड्डए' (१२०), 'वड्डए' (१२०) जैसे आत्मनेपदी रूपों का संकेत किया है, तथा उन्हें छन्दोनिर्वाहार्थ ही प्रयुक्त माना है।'
६१०३. प्रा० पैं. की भाषा में हमें निम्न समापिका क्रियाएँ मिलती हैं :१. वर्तमान निर्देशक प्रकार (प्रेजेंट इंडिकेटिव) । २. आज्ञा प्रकार (इम्पेरेटिव) । ३. भविष्यत् (फ्यूचर)। ४. विधि प्रकार (ओप्टेटिव) प्रा० पैं० की भाषा में निम्न असमापिका किया रूप मिलते हैं :१. वर्तमानकालिक कृदंत (प्रेजेंट पार्टिसिपिल)।। २. कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत (पेसिव पास्ट पार्टिसिपिल) । ३. भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य कृदंत (जीरंड)। ४. पूर्वकालिक असमापिका क्रिया (एब्सोल्यूटिव) । ५. तुमन्त रूप (इनफिनिटिव) ।
यहाँ व्यवहारतः तीन प्रकार (मूड्स) पाये जाते हैं :-१ निर्देशक प्रकार (इंडिकेटिव), २ आज्ञा प्रकार (इम्पेरेटिव) तथा ३ विधि प्रकार (ओप्टेटिव) । संयोजक प्रकार (सब्जेक्टिव मूड) का कोई अलग से रूप नहीं है। यहाँ निर्देशक प्रकार के साथ ही 'जई' ( < यदि) जोड़कर संयोजक प्रकार के भाव की व्यंजना कराई जाती है। जैसे,
सेर एक्क जइ पावउँ घित्ता, मंडा बीस पकावउँ णित्ता (१.१३०); एका कित्ती किज्जइ जुत्ती जइ सुज्झे (२.१४२)।
इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि उक्तिव्यक्तिप्रकरण की पुरानी पूर्वी हिंदी (पुरानी कोसलो) में विधि प्रकार के रूपों का अभाव है। वहाँ विधि प्रकार की व्यंजना कराने के लिये वर्तमान निर्देशक प्रकार के साथ निषेधवाचक 'जणि' का प्रयोग किया जाता है; जैसे 'पापु जणि करसि' (११।११), 'सत्त मार्ग जणि छाटसि छाडसि' (१०।१२) २ वर्तमान निर्देशक प्रकार :
१०४. पुरानी पश्चिमी हिंदी के वर्तमान रूप म० आ० भा० तथा प्रा० भा० आ० के वर्तमान निर्देशक प्रकार (वैयाकरणों के लट् लकार) से विकसित हुए हैं । १. Sandesarasaka (Study) 831
२. Uktivyakti (Study) $ 70 (3), p. 55
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