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________________ पद-विचार ४८१ (ख) क्रमात्मक संख्यावाचक विशेषण:पढम, पढम, पढमो, पढमे, पढमहि < सं० प्रथम, पहिल्लिअ. बीअ बीए, बीअम्मि < सं० द्वितीय, तीअ, तीअं, तीअओ, तिअलो, तीए < सं० तृतीय. चउठा, चउथो, चउत्थए, चउत्थहिँ < सं० चतुर्थ, साथ ही 'चारिम' जो 'पंचम' के सादृश्य पर बना है। पंचम, पंचमा, पंचमे < सं० पंचम. छट्ठ, छटुं, छट्ठहि, छट्ठम (< *षष्ठ–म) < सं० षष्ठ. सत्तम < सं० सप्तम. (ग) समानुपाती संख्यावाचक विशेषणः दुणा, दुण्ण, दुण्णा, दूण < सं० द्विगुणिताः तिगुण, तिण्णिगुणा < सं० त्रिगुणिताः ऊपर की तालिका में गणनात्मक संख्यावाचक विशेषणों तथा क्रमात्मक संख्यावाचक विशेषणों में से कई के सविभक्तिक रूप भी पाये जाते हैं। ये या तो कर्ताकारक के -ओ (प्राकृत रूप), उ (उदा० एक्क), कर्ता-कर्म कारक के 'अं' विभक्ति चिह्न (उदा० छटुं, एक्वं, तीअं आदि) से युक्त है, या करण-अधिकरण विभक्ति -ए, -हि -म्मि से निर्मित रूप हैं यथा बीए, पढमे, पंचमे, छ?हि, बीअम्मि, अट्ठारहेहिँ। एक आधरूपों पर नपुंसक कर्ता-कर्म ब० व० विभक्ति का प्रभाव है- अट्ठाइ-अट्ठाइं, सत्ताईसाइँ, सत्तावण्णाइ । कई रूपों में छंद की सुविधा के लिए किया परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित होता है। यहाँ ह्रस्व स्वर का दीर्धीकरण तथा दीर्घ स्वर का ह्रस्वीकरण पाया जाता है। उदा० दहा (दह का परिवर्तित रूप), एग्गाराहा (एग्गारह का परिवर्तित रूप), छब्बीसा (छब्बीस का परिवर्तित रूप) । 'दहचारि', 'दहपंच', 'दहसत्त', 'दहाअट्ठ', 'णवदह' क्रमशः १४, १५, १७, १८ तथा १९ के वैकल्पिक रूपों का संकेत करते हैं। धातु क्रियापद तथा गण १०१. प्रा० भा० आ० के कई धातु प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिन्दी ने अपनाये हैं, किन्तु यहाँ आकर क्रियापदों ना में अपूर्व परिवर्तन दिखाई पड़ता है। हम देखते हैं कि प्रा० भा० आ० में धात् १० गणों में विभक्त थे, जिनमें द्वितीय गण (अदादि गण) को छोड़ कर-जिसमें केवल धातु रूप के साथ तिङ् विभक्तियाँ जुड़ती थी-अन्य सभी गणों में कोई न कोई विकरण धातु तथा तिङ् विभक्ति के बीच में जुड़ता था । म० भा० आ में आकर प्रा० भा० आ० का गणविधान समाप्त हो गया, तथा सभी धातुओं में प्रायः अ-विकरण वाले भ्वादि गण (प्रथम गण) के धातुओं की तरह रचना, होने लगी । इस प्रकार अ-विकरण वाले धातु ही म० भा० आ० के एक मात्र गण का संकेत करते हैं । म० भा० आ० में आकर एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी हुई कि अकारान्त संज्ञापद अकारांत धातुओं के साथ घुलमिल गये तथा इस मिश्रण से उन्हें मजे में धातुरूप में प्रयुक्त किया जाने लगा। इस प्रकार म० भा० आ० में मूल प्रा० भा० आ० धातुओं के अतिरिक्त कई नाम धातु भी चल पड़े। इस प्रकार प्रा० पै० की भाषा ने म० भा० आ० की ही क्रियापद-रचना को ज्यों का त्यों अपनाया है, तथा यहाँ केवल अ-विकरण वाले धातु ही पाये जाते हैं। वैसे अपवाद रूप में हमें प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिन्दी में प्रा० भा० आ० के चुरादिगण के अवशिष्ट रूप भी मिल जाते हैं। इनमें 'ए' (< सं० 'य') विकरण पाया जाता है। किन्तु ये रूप केवल छन्दोनिर्वाहार्थ प्रयुक्त हुए हैं तथा इनका प्रयोग वहाँ पाया जाता है, जहाँ दीर्घ अक्षर की आवश्यकता है। प्रा० पैं० की भाषा में इस तरह के -ए वाले रूप निम्न हैं। करेहु (तीन बार), कहेहि (एक बार), कहेहु (तीन बार), जाणे (दो बार = जानाति), जाणेइ (एक बार); जाणेहि (एक बार), जाणेहु (दो बार), जाणेहू (एक बार), ठवेहु (छह बार), ठावेहि (एक बार), पभणेइ (चार बार < प्रभणति), फुट्टेइ (एक बार), विआणेहु (तीन बार, < विजानीत), मुणेहु (पाँच बार), रएइ (एक बार सेतुबंध से उदाहृत प्राकृत पद्य में, < रचयति)। संदेशरासक की अपभ्रंश में भी कुछ ०ए विकरण वाले रूप मिले हैं :- करेइ, सिंचेइ (१०८), साहेइ (८२), हुवेइ (१०४), करेहि णिसुणेहु (१९) । प्रो० (अब डा०) भायाणी ने भी वहाँ इन्हें छन्दोनिर्वाहार्थ ही प्रयुक्त माना है ।' 8. Sandesarasaka (Study) $ 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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