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________________ ४७६ प्राकृतपैंगलम् $ ९२. प्रत्यक्ष उल्लेखसूचक सर्वनाम :- इसके प्रा० पैं० में ये रूप मिलते हैं : (तीनों लिंगों में) ए०व०. ब० व० कर्ता ए (२.१६८), एउ (१.१७६), एह (१.७८), एहु ए (२.६५) (२.११०), इह (एषा, इयं =१.८६), एसो (२.१७४) एअ (एषा २.११०), ओ (२.१५) करण इम (२.७४), एहि (१.१२४), इण्णि (अनया २.१६०) हिण्णि (अनया २.१७२) संबंध अधिकरण इत्थि (अस्यां (१.९) इसके अधिकांश रूप इदं से, तथा एषः-एषा-एतत् से सम्बद्ध हैं। इत्थि तथा इण्णि दोनों का विकास उल्लेखनीय है। इत्थि का प्रयोग अधिकरण में पाया जाता है । 'त्थ' विभक्ति चिह्न जो मूलतः 'त्र' प्रत्यय (तत्र, यत्र, अत्र) का विकास जान पड़ता है, सप्तम्यर्थ में प्राकृत में ही प्रयुक्त होने लगा है। किन्तु हेमचन्द्र ने 'इदं' शब्द के साथ इसका निषेध किया है। ऐसा जान पड़ता है, परिनिष्ठित प्राकृत में, 'स्थ' का प्रयोग विहित न होने पर भी कथ्य प्राकृत में *इत्थ रूप चलता रहा होगा । अपभ्रंश में इससे मिलते 'त्र' प्रत्यय (>त्थ) वाले रूप मिलते हैं : जइ सो घडइ प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु । जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सारिक्खु ॥ (हेम० ८.४.४०४) वस्तुतः 'इत्थि' का विकास 'इत्थ' (< इदम्+त्र) या एत्थ (< एतत्+ < त्र) के साथ अधिकरण ए० व० चिह्न 'इ' जोड़कर माना जा सकता है :- 'इत्थ+इ' (< इदं या एतत् + त्र + इ)। इससे मिलता आज भी पंजाबी में बोला जाता है। 'इण्णि' (करण ए० व०) का संबंध 'एण्हि-इण्हि' से जोड़ा जा सकता है। ६ ९३. प्रश्नसूचक :- प्रा० पैं० में इसके निम्नलिखित रूप हैं :ए० व० ब० व० को (२.१३०), का (स्त्री० २.१२०), किं (१.६), के (२.११७) कि (२.१३४), की (किं २.१३२), काइ-काइँ (१.६), काहा (२.१८१), के (२.११७). करण केण (२.१०१), कमण (=कवण १.१६७), किम (१.१३५) संबंध कस्स (२.१५३), काहु (२.१८५) (१) को < कः, का < का (स्त्री०), किं-कि-की (< कि), काइ-काइँ (< कानि), के <के, ब० व० रूप)। (२) केण < केन, कमण (=कवण < कउण < कः पुनः) । (३) कस्स < कस्य, 'का' में 'आह-आहु' अपभ्रंश संबंध ए० व० का विभक्ति चिह्न है। ९४. अनिश्चयसूचक :- इसका प्रा० पैं० में केवल 'कोइ' (१.१२६, १५७, १९९, २.१६१) रूप मिलता है। इसकी उत्पत्ति प्रा० भा० आ० 'कः + अपि' (कोऽपि) से हुई है। प्रा० भा० आ० कोऽपि > म० भा० आ० कोवि > अप० कोइ । हिंदी राज में इसका दीर्घ रूप 'कोई मिलता है। प्रा० पैं० की भाषा में इसके तिर्यक् रूप नहीं मिलते । हिंदी में इसके तिर्यक् रूप 'किसी' तथा 'किन्ही' हैं, जिनकी उत्पत्ति क्रमश: 'कस्यापि > कस्सवि > कस्सइ > हि० किसी १. उ. सि-म्मि-त्थाः । (८.३.५९) सर्वादेरकारात्परस्य डे स्थाने स्सि म्मि त्थ एते आदेशा भवन्ति । सव्वस्सि, सव्वम्मि, सव्वत्थ । - हेमचन्द्र ८.३.५९ सूत्र तथा वृत्ति २. न स्थः । (८.३.७६) इदमः परस्य 'डे स्सि-म्मि-त्थाः' (८.३.५९) इति प्राप्तः त्थो न भवति । इह, इमस्सि, इमम्मि । - वही, ८.३.७६ सूत्र तथा वृत्ति कर्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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