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________________ कर्ता कर्म पद-विचार ४७५ (५) 'तसु-तासु-तासू' संबंध ए० व०, ब० व० का विकास 'तस्य > तस्स > तस्सु > तसु-तासु के क्रम से हुआ है। तसु-तासु का 'उ' अपभ्रंश भाषा की विशेषता है। यह मूलतः ए० व० का रूप है किंतु ब० व० में भी प्रयुक्त होने लगा है। (६) तहि-अधिकरण ए० व० का रूप है । इसका विकास त+हि (भिः) से हुआ है । 'हि' जो मूलतः करण ब० व० का चिह्न है, अधिकरण में भी प्रयुक्त होने लगा है। यह रूप संदेशरासक में भी मिलता है :- 'किं तहि दिसि णहु फुरइ जुन्ह णिसि णिम्मलचंदह' (क्या उस दिशा में निर्मल चन्द्र की चन्द्रिका रात में नहीं दमकती) । ६ ९१. सम्बन्धवाचक :- प्रा० ० में इनके निम्न रूप मिलते हैं : (तीनों लिंग) ए० व० ब० व० जो (१.१), जं (१.९३) जा जे (२.१८७) (स्त्री० २.३६), जे (२.१४९), जु (१.१५८) जे (१.१९८), जेण (२.७१, २.१०५), जिण (२.२०७) जिणि (२.१११), जहि (१.१२८). सम्प्र० सम्बंध जस्स (२.१६८), जसु (२.१०५), जासु (२.१२३), जस्सा (=यस्याः , स्त्री० १.८४) अधिकरण जस्समि (=यस्यां स्त्री० १.५८), जाम (=यस्मिन् २.१३३) जेसं (२.१५१) जहि (२.१६२); जहिँ (२.१७०), जहा (२.१८३) (१) 'जो, जा, जं' (कर्ता कर्म ए० व०); यः, या, यत् से संबद्ध हैं । अव्यय के रूप में एक स्थान पर उपलब्ध 'जु' भी इसीसे संबद्ध है । 'बुहअण मण सुहइ जु जिम ससि रअणि सोहए' (१.१५८) । 'जु' का अव्यय के रूप में प्रयोग संदेशरासक में भी सिर्फ एक जगह देखने को मिलता है : कंत जु तइ हिअअट्ठियह, विरह विडंबइ काउ । सप्पुरिसह मरणाअहिउ, परपरिहव संताउ । (संदेश० १.७६) (हे प्रिय अगर तुम्हारे दिल में रहते हुए भी विरह (मेरे) शरीर को परेशान करता है, (तो तुम्हें ही लज्जित होना चाहिए), क्योंकि सत्पुरुषों का परकृत पराभव तथा तज्जनित संताप मौत से भी बढ़ कर होता है।) (२) 'जेण, जिण, जिणि, जहि' करण ए० व० के रूप हैं । 'जिणि' का विकास 'ज + इण + इ' से माना गया है। 'इणि' वाले विभक्त्यंत रूप 'तत्-यत्' (तिणि-जिणि) के तो मिलते हैं, "किं' (*किणि) के नहीं । ये रूप केवल इन्हीं दो सर्वनामों तक सीमित हैं। डा० टगारे 'इणि' के 'इ' का विकास स्पष्ट नहीं कर पाये है। संभवत: 'जिणितिणि' का संबंध '*जण्हि-तण्हि' से है तथा 'इ' सावर्ण्यजनित जान पड़ता है अथवा यह 'जेण-तेण' के 'ए' का दुर्बलीभाव है । 'जहि' का 'हि' (< भि:) मूलतः ब० व० का चिह्न है जो ए० व० में भी प्रयुक्त होने लगा है। (३) 'जस्स, जसु, जासु, जासू, जस्सा' का विकास यस्य > जस्स > जस्सु > जसु-जासु तथा यस्याः > जस्सा (स्त्री०) की पद्धति से हुआ है। (४) 'जस्सम्मि, जाम, जहि-जहिँ, जहा, जेसुं-अधिकरण ए० व० ब० व० के रूप हैं । 'जहि-जहिँ अप० रूप हैं । इन्हीं से संबद्ध 'जहा–जहाँ हैं । 'जहि-जहिँ' का संबंध वस्तुतः 'य+भिः' से जोड़ा जाता है । 'जाम्ह' का प्रयोग केवल परवर्ती ग्रंथ 'कुमारपालप्रतिबोध' (४८.२)' में मिलता है । इसीसे 'जाम' का संबंध दिखाई पड़ता है । 'जेसु' अधिकरण ब० व० में 'जेसु' (< येषु) का वैकल्पिक रूप है। १. Tagare : Historical Grammar of Apabhramsa. 8 123, pp. 222-223 २. Tagare : $ 126 A (i), p. 263 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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