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प्राकृतपैगलम्
साथ तुह, तुअ, तुय जैसे वैकल्पिक रूप मिलते हैं ।' 'संदेशसडउ सवित्थरु तुहु उत्तावलउ' (९२ स), 'कावालिय कावालिणि तुय विरहेण किय' (८६ द), फलु विरहग्गि पवासि तुअ' (११४ अ ) ।
(४) 'तब ते' शुद्ध प्रा० भा० आ० रूप हैं ।
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(५) 'तुज्झे' का विकास 'मुज्झ' के सादृश्य से प्रभावित है। इसे डा० टगारे ने 'महां' के मिथ्या सारस्य पर निर्मित पालि रूप 'तुह्यं' तुज्झु तुज्झ के क्रम से विकसित माना है। अप० में इसके तुझ, तुज्नु, तुझ, तु रूप मिलते हैं।' 'तुज्झे' वस्तुतः 'तुज्झ' (हि० तुझे) का तिर्यक् रूप है। (६) 'तोहर' का विकास तो कर *तो - अर> तोहर के क्रम से हुआ है, इसी का समानान्तर रूप 'तोर' उक्तिव्यक्ति में मिलता है :- "अरे जाणसि एन्ह मांझ कवण तोर भाइ" (१९.३० ) । पिशेल ने इसका विकास ताम्हार > तोहार > तोहर के क्रम से माना है।
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(७) तुम्ह, तुम्हा, तुम्हाणं संबंध व व० के रूप है। इनमें तुम्हाणं < *तुष्माणां - *युष्माणां - युष्माकं का विकास है। शेष रूप *तुष्म> तुम्ह के विकास हैं । इसी से मराठी तुम्हि - तुम्हा; गुज० तमे, ब्रज तुम्हौ, खड़ी बोली तुम्ह— (तुम्हारा तुम्हारे तुम्हारी) संबद्ध हैं।
$ ९०. अन्य पुरुष वाचक या परोक्ष उल्लेखसूचक :- इसके ये रूप मिलते हैं। (तीनों लिंग के रूप)
कर्ता
कर्म
करण
संप्र०
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ए० व०
स (२.१२०), सो (२.१०२), सा (स्त्री० २.१०६), सोइ (२.६३), सोई (२.१२३), सोड (२.१०१)
तं (१.७६, २.१४१)
तेण (२.१६९), तहि (१.९१ )
संबंध तसु (१.३६), तासु (२.१४९)
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ब० व०
तहि (१.१५७)
स, सो पुलिंग रूप है, सा स्त्रीलिंग रूप
प्राकृत अपभ्रंश में सो नियत रूप से चलता
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अधिकरण (१) 'स, सो, सा, रहा है तथा अप० में इसका सउ रूप भी मिलता है। अन्य पुरुष ए० व० सउ प्रा० पैं० में नहीं मिलता इसका प्रायः 'सो' रूप ही मिलता है, जो कुछ स्थानों पर शुद्ध प्राकृत रूप है, किन्तु कुछ स्थानों पर राज० - ब्रजभाषा के सः > सो > सउ > सो वाले विकसित रूप का संकेत करता है ।
(२) 'सोइ, सोई, सोठ' अन्य पु० कर्ता ए० व० में पाये जाते हैं। सोइ सोई का विकास स एव' से हुआ है। सोठ की उत्पत्ति 'सो+उ' (अप० कर्ता कर्म ए० व० विभक्ति) से हुई है।
(३) 'तं’—का प्रयोग कर्ता ए० व० में नपुंसक लिंग के लिए पाया जाता है तथा कर्म ए० व० में पुल्लिंग स्त्रीलिंग ( तां) दोनों में भी पाया जाता है।
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ता (१.५९), तासू (-तासु २.१२१), तसु (१.१८१)
(४) 'तेण तहि' करण ए० व० के रूप हैं। 'तहि' का विकास डा० चाटुर्ज्या के मतानुसार 'तण् हि' • तहि से मानना होगा, जो षष्ठी ब० व० के 'आनां (ण) तथा तृतीया ब० व० - भि' (हि) के योग से बना है।* इसका 'न्हि' रूप वर्णरत्नाकर में तथा इसका 'नि' रूप तुलसी में मिलता है। ब्रजभाषा का ब० व० चिह्न 'न' भी इसी से जोड़ा जाता है । यह रूप ए० व० में होने पर भी मूलतः ब० व० रूप (आदरार्थे ) जान पड़ता है।
२. Tagere: $120, p. 214
१. Sandesarasaka : (study) § 57, p.33
३. Pischel : 8434
४. Chatterjea Varnaratnakara (Study) $ 27 (साथ ही प्राकृतपैंगलम् (मात्रावृत्त) टिप्पणी (१.९१) पृ० ८१
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