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________________ पद- विचार ४७७ (रा० कस्या); केषामपि > *कानामपि म० भा० आ० काणंपि, काणंवि > काणइ किन्हीं ('नहीं' के लिए देखिये, 'तहि' यहाँ वस्तुतः 'हि' अंश करण का है तथा 'न' अंश संबंध का) के क्रम से हुई है। ९५. साकल्पवाचक:- इसके प्रा० पै० में निम्न रूप मिलते हैं : सव सव्व सव्यु सव्वउ, सव्वा, (प्रातिपदिक तथा कर्ता ए० व० रूप) सब्बे, सख्खाए, सव्वहि सव्वेहिँ (सविभक्तिक रूप) 1 इन सभी की उत्पत्ति सं० सर्व सव्वसव (हिंदी राज० सब) के क्रम से मानी जाती है। इसके अतिरिक्त 'सअल' भी मिलता है, जिसका 'सअला' रूप भी है। इसकी उत्पत्ति सं० 'सकल' से हुई है । यह साकल्यवाचक शब्द तत्समरूप (सकल) में मध्यकालीन हिंदी में प्रयुक्त होता है। खड़ी बोली हिन्दी में इसका प्रयोग कम होता है । राजस्थानी में इसका प्रयोग अधिक मिलता है, जहाँ इसका अर्धतत्सम रूप 'सगळा' पाया जाता है 1 पारस्परिक संबंध वाचक ६ ९६. प्रा० पैं० की भाषा में ये जो सो, जेत्ता तेत्ता हैं। इसके उदाहरण ये हैं : जो चाहसि सो लेहु (१.९); जेता जेता सेता तेत्ता कासीस जिण्णिआ ते कित्ती (१.७७) । इनकी उत्पत्ति *यकः > जओजउ जो; *सकः सओ सउ सो के क्रम से मानी जा सकती है। आत्मसूचक सर्वनाम $ ९७. प्रा० ० की पुरानी पश्चिमी हिंदी में इसके निम्न रूप मिलते हैं ब० व० कर्ता कर्म करण अधिकरण ए० व० अप्पा (२.१९५) अप्पं (१.५३), अप्पठ (१.३५) अप्पणा (२.९१) अप्पी (२.१९५) X Jain Education International X X X इसकी उत्पत्ति संस्कृत 'आत्मन्' से हुई है, जिसका 'त्म' प्राकृत में विकल्प से 'त्त-प्प' प्राकृत में अत्ता, अप्पा ये दो रूप मिलते हैं। 'अत्ता' का विकास केवल असमिया में ही 'आता' मिलता है। अन्य भाषाओं में 'अप्पा' वाला विकास ही पाया जाता है। हि० राज० 'आप' (आत्मन् ( अप० तथा प्रा० पैं०) > आप ) । सार्वनामिक विशेषण For Private & Personal Use Only होता है । इस तरह (पिता) के रूप में अप्पा > अप्प $ ९८. प्राकृतपैगलम् में इनके बहुत कम रूप मिलते हैं। (१) एरिसं, एरिस, एरिसि, एरिसिअ, हरिसिअं, एरिसही (= एतादृशैः); इन सबकी उत्पत्ति सं० एतादृक्-एतादृश > म० भा० आ० एदिस एइस (हि० ऐस ऐसा ) के क्रम से होनी चाहिए थी; किंतु प्रा० पैं० में एइस रूप नहीं मिलता । अतः स्पष्ट है कि उपर्युक्त 'र' वाले रूपों का विकास एतादृश* एआरिस एरिस के क्रम से मानना होगा । (२) कमण (= कवँण) ( < कः पुनः) । इसकी उत्पत्ति 'कीदृक्' से मानी गई है, अप० में 'कीदृक्' का 'कवण' हो जाता है। हेमचंद्र ने 'कर्वण' को 'किं' के स्थान पर आदेश माना है :- 'किम का कवणी वा (८.४.३६७) किंतु हमें इसकी व्युत्पत्ति कः पुनः क उण > कवँण के क्रम से होती जान पड़ती है । सार्वनामिक क्रियाविशेषणों के लिए दे० क्रियाविशेषण ६ ११६ परसर्ग $ ९९. आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में आकर प्रा० भा० आ० तथा म० भा० आ० कारक-विभक्तियाँ धीरेधीरे लुप्त हो गई हैं। म० भा० आ० के परवर्ती रूप अपभ्रंश में ही कई परसर्ग प्रयोग में चल पड़े हैं। एक ओर शुद्ध www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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