________________
पद-विचार
४६५ किंतु डा० चाटुा ने इसकी व्युत्पत्ति प्रा० भा० आ० -*धि (जिसका समानांतर रूप 'थि' ग्रीक में पाया जाता है, ग्रीक 'पोथि < आ०भा० यू० *क्वोधि > प्रा० भा० आ० कधि (कहाँ) से मानी है। इस तरह उनके मत से घरहिँ-घरहि का विकास 'घृध-घि, घृघ-घि से मानना होगा।
**घृघधि (आ० भा० आ०) > *गृह-धि > गर्ह-धि > म० भा० आ०, न० भा० आ० घरहि ।
प्राकृतपैंगलम् में -हिँ, -हि वाले रूप अधिकरण ए० व० में ही अधिक प्रचलित हैं, करण ए० व० के एक आध उदाहरण मिलते हैं :
दप्पहि (१.१९८) < दर्पण । (६) शून्य सुप् चिह्न या शुद्ध प्रातिपदिक; प्रा० पैं० की पुरानी हिंदी में इसके अनेकों उदाहरण हैं, कुछ ये हैं :
भअ (१.१४५) < भयेन, पाअभर (१.१४७) < पादभरेण, घाअ (१.१५५) < घातेन, णाअराअ पिंगल (१.१७०) < नागराजेन पिंगलेन, दल (१.१८५) < दलेन, बल (१.१८५) < बलेन, दप्प (१.१९९) < दर्पण, धूलि (२.५९) < धूल्या, विहि (२.१५३) < विधिना, कोह (२.१६९) < क्रोधेन, वाह (२.१७१) < वाहेन । संबंध कारक ए० व०
६ ८१. प्रा० भा० आ० में सम्बन्ध कारक ए० व० के निम्न सुप् प्रत्यय पाये जाते हैं :
(१) -स्य; संस्कृत के अकारांत पु० नपुं० शब्दों के साथ (देवस्य, ज्ञानस्य); ये मूलतः सर्वनाम के षष्ठी ए० व० के चिह्न थे (तस्य, यस्य, कस्य), वहाँ से ये अकारांत पु० नपुं० शब्दों में भी प्रयुक्त होने लगे। (२) अस्:-यह प्रा० भा० आ० में अकारांतेतर समस्त शब्दों के पंचमी-षष्ठी ए० व० का चिह्न है, जिसका स्त्रीलिंग के इकारांत, उकारांत सब शब्दों में विकल्प से (धेन्वाः-धेनोः, रुच्याः-रुचे:) तथा दीर्घ स्वरांत शब्दं रूपों में नित्य रूप में 'आस्' पाया जाता है (रमायाः, नद्याः, वध्वाः ) । यह हलंत शब्दों का भी अपादान-संबंध ए० व० का प्रत्यय है, (गच्छतः, शरदः, जगतः)। इसका विकास आ० भा० यू० *ओस् (ग्रीक 'पादास्' (सं० पद:)), *एस् (लातिनी 'इस्', 'पेदिस्' (सं० पदः) से माना जाता है। प्रथम म० भा० आ० (प्राकृत) में आकर प्रा० भा० आ० का सम्प्रदान (चतुर्थी सम्बन्ध कारक में समाहित हो गया है, तथा यहाँ सम्प्रदान-सम्बन्ध कारक के रूप एक हो गये हैं। प्राकृत सम्बन्ध कारक ए० व० के चिह्न ये हैं :(१) "स्स (मागधी 'श्श); सभी प्रकार के पुल्लिंग नपुं० शब्दों के साथ; पुत्तस्स, अग्गिस्स, वाउस्स, पिउस्स (पितुः), भत्तुस्स (भर्तुः), इसका विकास स्स (श्श) < स्य के क्रम से हुआ है । (२) •णो, अकारांत पुल्लिंग नपुं० को छोड़कर सभी पु० नपुं० लिंग शब्दों के साथ, यथा अग्गिणो, वाउणो, पिउणो, भत्तुणो, इसका विकास संस्कृत के नकारांत शब्दों के सम्बन्ध ए० व० रूपों से मानना होगा :- 'धनिनः, करिणः' यहाँ का 'नः', प्रा० णो होकर अन्य शब्दों में भी प्रयुक्त होने लगा है । (३) -अ, -इ, -ए; स्त्रीलिंग शब्दों के सम्बन्ध ए० व० में प्रयुक्त वैकल्पिक रूप, मालाअ-मालाइमालाए, णईअ-णईइ-णईए, वहूअ-वहूइ-वहूए (दे० पिशेल ६ ३८५) । परवर्ती म० भा० आ० (अपभ्रंश) में आकर अपादान के रूप भी सम्प्रदान-अपादान-सम्बन्ध कारक जैसे एक कारक की स्थिति मानी जाती है । (दे० टगारे ६७८) टगारे के मतानुसार १००० ई० के लगभग अप० अपादान-सम्प्रदान-संबंध कारक में लुप्त हो गया था। इसी अप० सम्प्रदानअपादान-संबंध कारक ने आगे जाकर न० भा० आ० के विकारी या तिर्यक् रूपों को जन्म दिया है। अपभ्रंश में इसके प्रत्यय ये हैं :- (१) °स्स-स्सु-सु ये तीनों प्राकृत रूप हैं; इनका सम्बन्ध सं० 'स्य' से है, (२) 'ह' वाले संबंध कारक ए० व० के प्रत्यय, जिनके -ह, -हो, -हु, -हि, -हे रूप मिलते हैं (दे० टगारे $ ८३ बी, $ ९४, १९७), ये वास्तविक अपभ्रंश रूप हैं; (३) शून्य रूप; जिसका संकेत हेमचन्द्र ने किया है, किन्तु अल्सदोर्फ अपभ्रंश सम्बन्ध कारक में शून्य रूपों का अस्तित्व मानने को तैयार नहीं, वे ऐसे स्थलों पर विश्रृंखल समस्त पद ही मानते हैं।
प्राकृतपैंगलम् की भाषा में हमें इसके निम्न रूप मिलते हैं :- (१) "स्स, सु, “स, णो वाले रूप, (२) 'ह वाले रूप, (३) शून्य रूप, (४) परसर्ग युक्त रूप ।
(१) स्स', 'सु, “स वाले रूप निम्न हैं :१. Chatterjea : Uktivyakti (study) $ 63, pp. 44-45
२. व्यास : संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन पृ० १६४ Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org