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________________ ४६४ प्राकृतपैंगलम् - एहिँ, - हि जो मूलतः अधिकरण ए० व० के प्रत्यय हैं ( - एहिँ, हि प्रा० भा० आ० - स्मिन्, किन्तु डा० चाटुर्ज्या इसे प्रा० भा० आ० *ध से जोड़ते हैं)। प्राकृतपैंगलम् की भाषा में इन अपभ्रंश करण अधिकरण ए० ० रूपों के साथ ही शुद्ध प्रातिपदिक रूप भी करण ए० व० में पाये जाते हैं। जो अवहट्ठ और पुरानी हिन्दी की निजी प्रकृति का संकेत करते हैं । प्रा० पैं० की भाषा के करण ए० व० के प्रत्यय ये हैं ::- (१) एण (शुद्ध प्राकृत रूप) (२) णा तथा आइ (शुद्ध प्राकृत रूप); (३) ए ए रूप, (४) ३ रूप, (५) हि, हं रूप (६) शून्य रूप (१) एण ये शुद्ध प्राकृत रूप है तथा इनके उदाहरण ये हैं : वणणेण (१.११०) पिंगलेण (२.३५), कामावआरेण (२.५० ) < कामावतारेण, गुणेण (२.६८), णाअराएण (२.७६ ) < नागराजेन केण (२.१०१) < केन, रूपण (२.१२७) < रूपेण, वीरवग्गेण (२.१३२) < वीरवर्गेण । 'एणं' वाले रूप प्रा० पै० में नहीं मिलते। (२) - णा ये भी प्राकृत रूप हैं तथा प्राकृतपैंगलम् में नगण्य है :- ससिणा (२.१८) < शशिना, पइणा (२.१८) < पत्या । - आई रूप का उदाहरण 'लीलाइ' (१.७४) लीलया है, जो सेतुबंध से उदाहत पद्य में मिलता है। (३) –एँ, - ए वाले रूप; इनको लेने के पूर्व इन रूपों की व्युत्पत्ति पर विचार करना आवश्यक होगा । ज्यूल ब्लॉख के मतानुसार इनकी व्युत्पत्ति सं० इन से जोड़ी जा सकती है। डा० चाटुर्ज्या का भी यही मत है :- 'पूतें' (प्रा० कोसली) < अप० पुर्वे म० भा० आ० पुर्ते पुत्तेण - < प्रा० भा० आ० पुत्रेण । प्रो० टर्नर ने गुजराती 'ए' का सम्बन्ध संस्कृत — अकेन अप० अएं प्रा० प० राज० अइँ से जोड़ा है। ग्रियर्सन –एँ – ए का सम्बन्ध म० भा० आ० अधिकरण ए० व० के प्रत्यय अहिं अहिं से जोड़ते हैं। डा० टगारे ग्रियर्सन के मत के पक्ष में हैं।' जैसा कि अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन से पता चलता है, एण, एणं इण वाले रूप बहुत कम पाये जाते है। यहाँ तक कि पुष्पदन्त जैसे रूढिवादी कवि में भी एं वाले रूप अधिक हैं, तथा अल्सदोर्फ के अनुसार एं, - एण रूपों की संख्या क्रमशः ५८० तथा ३५५ है पूरबी अपभ्रंश में तो एण वाले रूप पाये ही नहीं जाते । प्रा० पैं० की भाषा से ए वाले रूपों के उदाहरण निम्न हैं: - - रूए (१.३) < रूपेण, सप्पाराए (२.१०६) - सर्पराजेन गाछे (२.१४४ ) = वृक्षेण, कित्तिए (१.२०१ ) < कीर्त्या । = (४) – इ, ( ण् + इ णि) वाले रूप यह भी मूलतः अधिकरण ए० व० का रूप है। इसकी व्युत्पत्ति सं० ए (देवे, रामे) से मानी जाती है। करण ए० व० में इसका प्रयोग १५ बार कुमारपालप्रतिबोध में पाया जाता है, जहाँ अल्सदोर्फ ने इको करण ए० व० का प्रत्यय ही माना है। इससे भी पहले भविसत्तकहा में भी इ वाले करण ए० व० के रूप पाये जाते हैं। :- संबंधि< संबंधेन, जणि< जनेन, पउरि < अतिक्लेशेन । (दे० टगारे पृ० ११९) इसके प्रयोग जसहरचरिउ के 'कालि पौरेण, महायणि महाजनेन, अइकिलेसि कालेन, सखि सुखेन, दंसणि दर्शनेन' के रूप में भी देखे जा सकते हैं। प्रा० पैं० की भाषा में ये रूप भी देखे जा सकते हैं। प्रा० पैं० की भाषा में ये रूप बहुत कम पाये जाते हैं। जिणि (१.१२८) येनः सुपुणि (२.५७) < सुपुण्येन । इसमें 'जिणि' में बहुतः दो विभक्तिचिह्न 'ण् + इ = (५) - हिँ, - हि; यह भी मूलतः अधिकरण ए० ब० का ही रूप है। इसकी व्युत्पत्ति प्रायः सं० - स्मिन् (तस्मिन्, यस्मिन्) से जोड़ी जाती है। इस तरह इसका विकास -स्मिन् म्हि हि हि माना जाता है । प्रा० भा० आ० - स्मिन् म० भा० आ० के काल में प्राचीन पूर्वी म० भा० आ० (अशोककालीन प्राकृत) में -स्सिँ, -स्सि पाया जाता है, जब कि मध्यदेशीय प्राकृत में पहले यह म्हि हुआ, फिर म्मिहिं का विकास म्हि से माना जा सकता है, १. Jules Bloch : La Langue Marathe $ 193 २. Chatterjea Uktivyakti (study) 863, p. 41 3. Tagare: Historical Grammar of Ap. § 81, p. 119 Jain Education International - णि' का योग है । -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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