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________________ पद-विचार ४६३ < राजसेनां, जसु (१.१५०) < यशः, सोटुउ (१.१७०) < सौराष्ट्र, मलु (२.६) < मलं, चेउ (२.३८) < चेतः, सुवासउ (२.६०) < सुवासं । यहाँ इतना संकेत कर देना होगा कि प्रा० ० की भाषा में -उ वाले कर्म कारक ए० व० के रूप बहुत कम पाये जाते हैं। (३) शून्य रूप; ये ही सबसे अधिक है । कुछ उदाहरण ये हैं : कुगति (तत्सम रूप १.९) < कुगति, सँतार (तत्सम १.९) < संतारं, संपअ (१.९८) < संपदं, सुह (१.९८) < सुखं, सण्णाह (१.१०६) < सन्नाहं, पक्खर (१.१०६) (=पाखर को), वअण (१.१०६) < वचनं, दुरित (१.१११) < दुरितं, अभअ वर (१.१११) < अभयं वरं, पओहर (१.२५) < पयोधरं, परक्कम (१.१२६) < पराक्रम, घित्ता (१.१३०) < घृतं (प्रातिपदिक 'घित्त' का छन्दोनिर्वाहार्थ दीर्घरूप), चउबोल (१.१३१), चंचल जुव्वण (१.१३२) <चंचलं यौवनं, चित्त (१.१३५) < चित्तं, कइ (१.१४४) < कर्वि, कइत्त (१.१५३) < कवित्वं, गिंदू (१.१५७) < कंदुकं, विमल (१.१५७) < विमलं (विशेषण है), जीवण (१.१६९) < जीवनं, घर (१.१६९) < गृहं, सरिर (२.४०) < शरीरं, संकट (१.२४) < संकटं, दुज्जणथप्पणा (२.९१) < दुर्जनस्थापनां, कुंजर (२.१३०) < कुंजरं, हिअअ (२.२०५) < हृदयं । संदेशरासक की अपभ्रंश में इसके -उ तथा -अ (जीरो) वाले रूप मिलते हैं । (दे० भायाणी ६ ५२) । उक्तिव्यक्ति में अधिकांश 'जीरो' रूप ही है, किंतु -3 वाले रूप भी पाये जाते हैं । उक्तिव्यक्ति में पदांतस्वर की सानुनासिकता वाले भी कुछ रूप कर्म ए० व० में मिलते हैं। इन वाले रूपों के लिए डा० चाटुा का मत है कि या तो ये म० भा० आ० कर्म ए० व० विभक्ति (< प्रा० भा० आ० -म्) से विकसित हैं, या म० भा० आ० का केवल साहित्यिक प्रभाव कहे जा सकते हैं । इन रूपों के उदाहरण ये हैं :- 'कापर्डे (४०.१५), रूखं (३८.२३), मुहँ (६.१९ साथ ही 'मुह (४४.६) भी), बेटि (५१.६ यह कर्म ए० व० है या ब० व० यह संदिग्ध है), खातिँ (१०.१७), भातँ माँसँ लोण घिउ (४६.१५)। न० भा० आ० के परवर्ती पश्चिमी विकास में प्रातिपदिक रूपों के ही अविकारी रूप चल पड़े हैं । आकारांत सबल शब्दों को छोड़कर सर्वत्र हिंदी में कर्म ए० व० में प्रातिपदिक रूपों का ही प्रयोग पाया जाता है, 'लड़की को', 'धोबी को', 'बहू को', 'नाई को', 'हाथी को' । आकारांत सबल रूपों में अवश्य विकारी -ए रूप के साथ 'को' का प्रयोग होता है, 'लड़के को', 'कुत्ते को' । राजस्थानी में भी ओकारांत सबल शब्दों के कर्म ए० व० में विकारी रूप '-आ' के साथ परसर्ग का प्रयोग होता है। पूरबी राज० 'छोरा नै' (लड़के को), "कुत्ता नै' (कुत्ते को)। करण कारक ए० व० ६८०. प्रा० भा० आ० में करण कारक ए० व० में निम्न सुप् प्रत्यय पाये जाते हैं :- (१) -एन, अकारांत पुल्लिंग नपुंसकलिंग शब्दों के साथ, देवेन, धनेन; (२) -आ, अधिकांश शब्दों के साथ जिनमें हलंत शब्द भी सम्मिलित हैं; रुच्या, नद्या, गच्छता, जगता; (३) -ना; इकारांत-उकारांत पुल्लिंग-नपुंसक लिंग शब्दों के साथ; कविना, वायुना, वारिणा, मधुना । प्रथम म० भा० आ० (प्राकृत) में करण कारक ए० व० के चिह्न ये हैं :- (१)-एण, -एणं (केवल अर्धमागधी, राष्ट्री में) < प्रा० भा० आ० -एन: पत्तेण-पत्तेणं (अर्धमा०, जैनमहा०); (२) -आए, -आइ, -आअ. ये वैकल्पिक रूप केवल आकारांत स्त्रीलिंग रूपों में होते हैं; मालाए, मालाइ, मालाअ (दे० पिशेल ६ ३७४-७५); (३) –णा < प्रा० भा० आ० -ना (-णा) । प्रायः सभी प्रकार के अन्य शब्दों में, अग्गिणा, वाउणा, पिउणा (< पित्रा), रण्णा-राइणा (महा०) < राज्ञा, (जैनमहा० राएण-राणा-राअणा; मागधी लञा, पैशाची रञा-राचित्रा )। परवर्ती म० भा० आ० (अपभ्रंश) में करण ए० व० में हमें निम्न प्रत्यय मिलते हैं (१) -एण (प्राकृत रूप); (२) -इण; यह-एण का दुर्बल रूप है अथवा इसे लेखों में 'ए' को 'इ' लिखने की प्रवृत्ति माना जा सकता है; (३) -एं, -एँ, -ए रूप, जो अपभ्रंश के वास्तविक करण ए० व० के प्रत्यय हैं (साथ ही अधिकरण ए० व० में भी पाये जाते हैं, क्योंकि अपभ्रंश में करण-अधिकरण ए० व० रूपों का सम्मिलन हो गया है); (४) –इं, -इँ, -इ रूप भी मूलतः अधिकरण ए० व० के प्रत्यय है, जो अपभ्रंश में छुटपुट रूप में करण ए० व० में भी पाये जाते हैं; (५) -एहि, १. Chatterjea : Uktivyakti (study) $ 59 (2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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