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प्राकृतपैंगलम्
णीवस्स (१.६७) < नीपस्य, जस्स (१.६९) < यस्य, जासु, तासु (१.८२) < यस्य, तस्य; कस्स (२.१०७) < कस्य, कामराअस्स (२.१२६) < कामराजस्य ।
-णो वाले रूप :
णो वाले रूप प्राकृत गाथाओं में देखे जा सकते हैं :- चेइवइणो (१.६९) < चेदिपतेः । (२) -ह वाले रूपों के उदाहरण निम्न हैं :
चंडालह (१.८४) < चंडालस्य, घत्तह (१.१०२) < घत्तस्य (घत्तायाः) (घत्ता का), कव्वह (१.१०९) < काव्यस्य, कव्वलक्खणह (१.११७) < काव्यलक्षणस्य, फणिदह (१.१२९) < फणींद्रस्य, कंठह (१.१२९) < कंठस्य, सूरह (१.१४७) < सूर्यस्य, अमिअह (१.२१०) < अमृतस्य, कणअह (१.७२) < कनकस्य, चूअह गाछे (२.१४४) < चूतस्य वृक्षण, माणह (२.१६३) < मानस्य ।
(३) शून्य रूप के उदाहरण निम्न हैं । इस संबंध में यह कह दिया जाय कि ये रूप कम मिलते हैं। उल्लाल (१.१०९) < उल्लालस्य (=उल्लालाका), कण्ण (१.१२६) < कर्णस्य, दोहा (१.१४८) (दोहा के), णाअर (२.१८५) < नागरस्य।
(४) परसर्ग वाले रूप :- गाइक घित्ता (२.९३); ताका पिअला (२.९७) (तस्याः प्रियः), मेच्छहके पुत्ते (१.९२) (म्लेच्छानां (पुत्रैः), कव्वके (१.१०८क) ( काव्यस्य), देवक लक्खिअ (२.१०१) (देवस्य लिखितं), सम्प्रदान अर्थ में 'धम्मक अप्पिअ' (१.१२८, २.१९१) । इन परसर्गों की व्युत्पत्ति के लिए दे० % ९९ । अधिकरण ए० व०
८२ प्रा० भा० आ० में अधिकरण ए० व० के चिह्न ये हैं :- (१)-इ, अकारांत शब्दों के साथ इसका ए रूप मिलता है (रामे, ज्ञाने), यह अन्य शब्द रूपों में भी मिलता है; (२)-आम्-स्त्रीलिंग रूपों में (रमायाम्, नद्याम्, रुच्याम्, धेन्वाम्, वध्वाम्); (३) पु० स्त्री० इकारांत, उकारांत रूपों में अन्तिम स्वर के 'औ' वाले रूप, कवी, गुरौ, रुचौ, धेनौ । प्रथम म० भा० आ० में अधिकरण कारक ए० व० के चिह्न ये हैं :- (१) -ए; अकारांत शब्दों के साथ, पुत्ते । (२) -म्मि (अर्धमागधी) वैकल्पिक रूप -सि (पुत्तम्मि-पुत्तंसि, अग्गिम्मि-अग्गिसि; प्रायः सभी पु० नपुं० शब्दों के साथ, (३)-अ, इ, -ए वाले रूप, स्त्रीलिंग शब्दों के साथ; ये ठीक वही हैं, जो संबंध कारक ए० व० के स्त्रीलिंग रूपों में पाये जाते हैं। इस तरह स्त्रीलिंग शब्दों में प्राकृत में करण, अपादान, सम्बन्ध (जिसमें सम्प्रदान भी सम्मिलित है) तथा अधिकरण के ए० व० में प्रायः समान रूप पाये जाते हैं। परवर्ती म० भा० आ० (अपभ्रंश) में अधिकरण ए० व० में निम्न प्रत्य पाये जाते हैं :
(१) -ए, जो संस्कृत -ए से सम्बद्ध है, (२) -इ, यह -ए का ही दुर्बल रूप है इसका विकास -इ < -ऐ <-ए के क्रम से माना जायगा; अप० में प्रा० भा० आ० तथा प्राकृत -ए ह्रस्व -ए हो गया था, तथा लिपि-संकेत में 'इ' के द्वारा व्यक्त किया जाने लगा था; (३) -अहिं, -अहिँ, -अहि ये वास्तविक अप० प्रत्यय हैं, जिनका विकास प्रा० भा० आ० '-स्मिन्' से जोड़ा जाता है (४) -एँ (पूर्वी अप०), -इँ (पश्चिमी अपभ्रंश), डा० टगारे से इन दोनों का सम्बन्ध भी 'स्मिन्' से ही जोड़ा है। उन्होंने -इँ को -एँ का ही दुर्बल रूप माना है। -एँ का विकास ग्रियर्सन के मतानुसार -अहिँ से जोड़ा जा सकता है तथा -अहिँ का ही समाहृत रूप-एँ है; पूर्वी अप० में इसके उदाहरण रसें, अंधार, पढमे देखे जा सकते हैं । डा० चाटुा ने भी पुरानी मैथिली के -एँ, -ए रूपों तथा बँगला-उड़िया के -ए रूपों की उत्पत्ति हिँ, -हि से ही मानी है, किन्तु वे इसका मूलस्रोत '-स्मिन्' न मानकर प्रा० भा० आ० *धि मानते हैं । बँगला 'घरे' तथा 'हिए' का विकास वे क्रमशः प्रा० भा० आ० *धृष-धि > *गृहधि > *गर्हधि > म० भा० आ० घरहि > पु० बँगला घर-इ > आ० बँगला घरे; तथा प्रा० भा० आ० *हृद-धि > म० भा० आ० हिअहि > पु० बँगला हिअहि > आ० बँगला हिए - इस क्रम से मानते हैं।
(५) डा० शहीदुल्ला ने अधिकरण ए० व० में दोहाकोष में ""इत' प्रत्यय का भी संकेत किया है :- 'बाहेरित' (पक्कसिरिफले अलिअ जिम बाहेरित भूम्यंति)१, किन्तु राहुल जी ने इस पंक्ति का पाठ 'पक्कसिरिफले अलिअ जिम बाहेरीय १. M. Shahidullah : Les Chants Mystiques p. 43
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