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________________ २४ ] अह मत्ता पताका, ४. ४८. मात्रापताकाः उद्दिष्ट के समान अंक स्थापित करो । वामावर्त से सबसे अंतिम अंक को उससे पूर्व के अंक के साथ लुप्त करो I इस प्रकार एक का लोप करने पर एक गुरु लाओ, दो का लोप करने पर दो गुरु तथा तीन का लोप करो तब तीन गुरु समझो। पिंगल इस मात्रापताका का गान करता है । जो व्यक्ति दूसरे को यह पताका समझा सके वही इसे प्राप्त कर पाता है । मात्रामेरु के द्वारा किसी मात्रिक प्रकरण में लघु गुरु के जितने भेद प्रकाशित होते हैं, उनके तत्तत् स्थान को मात्रापताका कहते हैं । सर्वप्रथम एक दण्डाकार लिखकर उसमें कल्पित मात्रा के समान अंक के कोष्ठ बनायें, फिर अन्त में नीचे से सूची के अंक लिखे। ऊपर के तीसरे कोष्ठ को दाहिनी तरफ बढ़ाकर फिर तीसरे कोष्ठ को दाहिनी ओर बढायें। इस तरह तीसरे कोष्ठ को बढ़ाते रहें । तदनन्तर अंकों को इस क्रम से भरें । प्रथम पंक्ति के अंक में से नीचे के अंक का २ घटाकर लिखें । इन बढ़े हुए अंकों में पुनः दो-दो, तीन-तीन, चार-चार घटाकर दूसरे बढ़े कोष्ठों में लिखे । पर यदि कोई अंक किसी कोष्ठ में दिखाई दे, तो उसे दुबारा न लिखें। इसमें प्रथम दण्ड एक गुरु का दूसरा दो गुरु का तीसरा तीन गुरु का, इसी तरह आगे भी संकेत करेगा । नीचे पंचमात्रिक छन्दों की पताका दी गई है: १ ८ सर्वलघु प्राकृतपैंगलम् उहिट्टा सरि अंका थप्पहु । वामावत्ते पर ले लुप्पहु ॥ ऐक लोप ऐक गुरु आणहु दुइ तिणि लोपे दुइ तिणि जाणहु || । मत्त पताका पिंगल गाव जो पावड़ सो परहि मिलाव ॥४८॥ (अडल्ला पादाकुलर्क) ५ ३ ५ ६ ७ एक गुरु २ १ Jain Education International २ ४ द्विगुरु इसे ऐसे भरा गया है । मात्रा मेरु के अनुसार प्रथम पंक्ति के कोष्ठों में १, २, ३, ५, ८ भर दिया । तदन्तर तीसरे खाने को दाहिनी ओर बढ़ाया। पहले खाने में ८ में से ३ घटाकर ५ लिखा, दूसरे में ८ में से २ घटाकर ६ लिखा, तीसरे में ८ से १ घटाकर ७ लिखा । फिर उससे तीसरे खाने को दाहिनी ओर बढ़ाया। पहले खाने ३ में से १ घटाकर २ लिखा, दूसरे में इसे ऊपर वाले खाने के ५ में से १ घटाकर ४ लिखा। इससे स्पष्ट है कि पंचमात्रिक प्रस्तार में सर्वलघु ( 111 ) केवल १ भेद (आठवां) होगा। एकगुरु ४ भेद होंगे, तीसरा, पांचवीं, छटा, सातवाँ (5111, 151, 151, 1115 ) द्विगुरु केवल तीन भेद होंगे, पहला, दूसरा तथा चौथा (551, 515, 155 ) | अह वित्तस्स लहूगुरुआणं, [ १.४८ पुच्छल छंद कला कई पुच्छल वण्ण मिटाव । अवसिट्ठे गुरु जाणिअहु लहु जाणिव्वड ताव ॥४९॥ [ दोहा ] ४८. C. O. अथ मात्रापताका उदिद्वा-B. उहिंदु C उहि लइ। लुप्पहु—A. लघुहु । लोप - D. लोपि, K. O. लोपे । O. तिण | जाणहु - A. जाहु, D. जांणह, N. जाण । गाव - C. गावै, O. गावहु । पावइ - C. पावै, K. पारह । परह - D. परइ । मिलाव - A. बझाव, C. बुझावै, D. बुझाव, O मिलो बहु ४९. C. O अथ वृत्तस्य लघुगुरुजानं पुच्छल A. B. C. D. अवसिठ्ठे -C. अवसिठ्ठे । जाणिअहु-B. जाणिअ, D. आणिव्वउ । C. प्रतौ छंदः संख्या ३५ । 1 0 पुछल। वण्ण-0 अंक मिटाव-C. मेलाव 0. मेटाव जाणिअह जाणिव्व - A. B. C. जाणिव्वहु, D. जाणिज्जउ, O अंका-C. अंका धप्पहू-C. त्यप्पहु ले A. लै, C. लहु 0. आणहु - A. आनह, C. O. जाणहु N. आण । तिणि - B. तिणि, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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