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________________ १.४९] मात्रावृत्तम् [२५ ४९. प्रश्नकर्ता द्वारा पृष्ट छन्द में कितनी कला होती है अर्थात् कितने लघु तथा गुरु होते हैं, यह पूछने पर पृष्ट वर्ण का लोप कर दे। अवशिष्ट कलाओं से गुरु की संख्या जान ले तथा गुरु के ज्ञान के बाद तदनुसार लघु की गणना भी जान ले । टिप्पणी-पुच्छल-(Vपुच्छ+ल) भूतकालिक कर्मवाच्य कृदन्त का रूप है, < /पृच्छ+ल । मिटाव-Vमिटा+अ; आज्ञा मध्यम पु०ए०व०काo-श्रुतियुक्त रूप (मिटाव्+अ) (हि० मिलावो) जाणिअहु-/ जाण+इअ+हु; मध्यम पु०ब०व० का रूप । जाणिव्व-/ जाण+इ+व्व (सं० तव्य)+उ; भविष्यत्कालिक कर्मवाच्य कृदन्त का रूप (संस्कृत टीकाकारों में कुछ ने इसे 'जानीत' से अनूदित किया है, कुछ ने 'ज्ञायन्तां' (लघव:) से । मैं इसे 'ज्ञातव्यः' (लघु) अथवा 'ज्ञातव्याः' (लघवः) का रूप मानता हूँ। विशेष-निर्णयसागर प्रति तथा हमारे C हस्तलेख में इसके आगे अतिरिक्त पाठ मिला है, जो 'प्राकृतपैंगलम्' मूल ग्रन्थ का अंश नहीं है। जैसा कि निर्णयसागर तथा C प्रति से स्पष्ट है, यह टीकाकार 'लक्ष्मीनाथ' का बनाया हुआ अंश है । इस अंश से मिलताजुलता एक अंश हमारे B हस्तलेख में भी उपलब्ध है, जिसे श्री घोष ने भी अपने संस्करण में पृ. ९९ पर टीका में दिया है। B तथा C हस्तलेख में वर्णमर्कटी तथा मात्रामर्कटी सम्बन्धी निम्न छन्दों को एक दूसरे में मिला दिया गया है। जिन छंदों में 'लक्ष्मीनाथ' (लच्छीणाहेण) का नाम है, वे B हस्तलेख में नहीं मिलते । यहाँ हम उन्हें निर्णयसागर संस्करण के अनुसार दे रहे हैं :वर्णमर्कटी : छप्पंती पत्थार करिज्जसु, अक्खरसंखे कोट्ट धरिज्जसु । पहिली पंति वण्ण धरि लिज्जसु, दोसरि पंति दुण्ण परिदिज्जसु ।। उप्पर अंक गुणित करि लेहि, चौठी पंति सोइ लिहि देहि । चौठी अद्धा पँचमी पंति, सोइ छठमा लिहु णिब्भंति ।। पँचमी चौठी तिअहि मिलाउ, पिंगल जंपै अंक फलाउ । वित्त पभेअ मत्त अरु वण्णह, गुरु लघु जाणिअ एअ सपण्णह ।। अक्खरमक्कलि जाणहु लोइ, जिहिं जाणे मण आणंद होइ । जो बुज्झई सोई पइज्झइ, मक्कलिजाने हत्थिअ रुज्झइ । लच्छीणाहेण कहे एम मक्कलिआए पबंधम्मि । पेक्खह वण्णसकुंडं मक्कलिअं बुहअणारुडम् ॥ मात्रामर्कटी: जा पिंगलेण कइणा ण णिबद्धा अप्पगंथंमि । तं मत्तामक्कलिअं लच्छीणाहेण विरइअं भणह ।। मत्तासंखे कोट्ठ करु वंतिच्छन पत्थारि । तत्थ दुआदिक अंक धरि पढमहि पंति विआरि ।। आइ अंक परितज्जि कह सव्वहु पंति मझारि । पुव्व जुअल सरि अंक धरु बीजी पंति विचारि ॥ पढम पंति ठिअ अंक करि बीजी पंति गुणेहि । जो जो अंका जहँ परहि तं तिअ पंति भणेहि ॥ पढमे बीअं अंकं बीए कोढे अ पंचमं अंकं । देऊण बाणदिउणं तद्दिउणं तीअचोत्थए देह ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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