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मात्रावृत्तम् ४६-४७. मात्रामेरु:
आरंभ में दो दो मात्राओं के कोष्ठक लिखो, उनमें अंतिम कोष्ठक में प्रथम अंक स्थापित करो, इसमें सम के पहले के (विषम) कोष्ठकों में एक अंक स्थापित करना चाहिए । अगले सम कोष्ठकों में दोनों का योग लिखें ।
सिर पर स्थित तथा सिर के परे वाले कोष्ठ में स्थित अंकों से कोष्ठ को निःशंक होकर भरें । इस प्रकार अंकों को भरकर दो चार जनें ही मात्रामेरु को जान सकते हैं। (भाव यह है कि मात्रामेरु का ज्ञान इतना कठिन है कि इसे दो चार व्यक्ति ही जान पाते हैं ।)
मात्रामेरु की गणना इसलिये की जाती है कि किस किस मात्रिक गण में कितना कितना प्रस्तार होता है, तथा उसमें सर्वगुरु, सर्वलघु या एकगुरु, एकलघु आदि भेद कान से होते हैं, इसे बताया जा सके । यह गणना निम्न प्रकार से की जाती है
सर्वप्रथम दो कोष्ठ लिखे जाते हैं, जो द्विकल का संकेत करते हैं, इसके बाद फिर दो कोष्ठ बनाये जाते हैं, जो त्रिकल का संकेत करते हैं। इसके बाद क्रमश तीन-तीन, चार-चार, पाँच-पाँच कोष्ठ बनाये जाते हैं। इस प्रकार चतुष्कल पंचकल में तीन-तीन, षट्कल सप्तकल में पाँच-पाँच कोठे बनेंगे। तदनन्तर प्रत्येक के अंत वाले खाने में १ अंक भर देना होगा, जो इस बात का संकेत करता है कि हर तरह के मात्रिक गण में सर्वलघु भेद केवल एक ही होगा । इसी प्रकार खाली कोष्ठ में ऊपर वाले तथा समीपस्थ कोष्ठ का योग लिख दे । प्रथम पंक्ति के दो कोष्ठों में १+१ अंक है, अतः द्वितीय पंक्ति के खाली खाने में २ लिख दिया, जो इस बात का संकेत करेगा कि त्रिकल में गुरु वाले दो भेद होंगे । (स्पष्ट है, गुरु वाला एक भेद 5 | होगा, दूसरा । ऽ, तीसरा भेद सर्वलघु । । । होगा ।) इसके बाद चौथी पंक्ति में अंतिम कोष्ठ में तो हम १ पहले ही भर चुके हैं, अभी दो कोष्ठ खाली पड़े हैं। इसमें प्रथम कोष्ठ के सिर पर कोई कोष्ठ न होने से हम केवल १ अंक लिख देंगे । अब एक कोष्ठ फिर खाली रहा, इस कोष्ठ में; इसके उपरिवर्ती गृहों मे २ तथा १ अंक है, अत: हम उनका योग ३ अंक लिख देंगे, जो इसके अन्य भेदों का संकेत करेगा । इस प्रकार स्पष्ट है कि आरंभिक कोष्ठ का १ अंक इस बात का संकेत करता है कि चतुष्कल में सर्वगुरु भेद केवल एक ही होगा-(55)। इसी तरह अंतिम कोष्ठ का १ अंक इस बात का संकेत करता है कि सर्वलघु भेद भी एक ही होगा:-(।।।।) | शेष कोष्ठ के ३ अंक एक गुरु वाले भेद का संकेत करते हैं :- (SI), (ISI), (IIS) । इस प्रकार चतुष्कल मात्रिक गण में कुल भेद ५ होंगे जो कोष्ठ के बाहर की अंतिम संख्या से स्पष्ट है। इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि सभी प्रकार के मात्रिक गणों में सर्वलघु भेद सदा १ ही होगा । इसी तरह सममात्रिक गणों (द्विकल, चतुष्कल, षट्कल) में सर्वगुरु भेद भी सदा १ ही होगा। अन्य विषम मात्रिक गणों में क्रमशः एक एक भेद बढ़ता जायेगा:- यथा त्रिकल में एक गुरु के भेद दो होंगे, तो पंचकल में ३ तथा सप्तकल में ४ । इसी गणना के अनुसार इस मेरु को निम्न रेखाचित्र के द्वारा व्यक्त किया जा रहा है
द्विकल
त्रिकल
चतुष्कल पंचकल षट्कल सप्तकल
४ |१०६१ २१ इस प्रकार स्पष्ट है कि सप्तकल के त्रिगरु भेद चार होंगे :(555), (1555), (5515), (5155) इसी प्रकार सप्तकल के द्विगुरु भेद १० होंगे; तथा एक गुरु भेद छः ।
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