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________________ पद-विचार ४५७ रूप मानता है, दूसरा ब० व० जैसे, उवजाइ (२.११९) एक टीकाकार के मत से कर्म ए० ब० 'उपजाति', अन्य के मत से कर्ता ब० व० 'उपजातयः' । कण्णरंधा (कण्णरंध का दीर्घ रूप २.१८३), एक टीकाकार के मत से 'कर्णरन्ध्र', दूसरे के मत से 'कर्णरंध्राणि' । करपाआ (करपाअ का दीर्घ रूप २.१५), एक टीकाकार के मत से समस्त पद 'करपादं' (एक वचन रूप), अन्य के मत से 'करपादौ' (ब० व० रूप) । कोकिलालाववंधा (बंध का दीर्घ रूप २.१६५), एक मत से 'कोकिलालापबंधः' (एक वचन), अन्य के मत से 'कोकिलापबन्धाः' (ब० व०) । गुणमंत पुत्ता (पुत्त का दीर्घ रूप २.११७), एक के मत से 'गुणवंतः पुत्राः' (ब० व०) दूसरे के मत से 'गुणवत्पुत्रं' (ए० व०)। जुअलदल (१.१६१), एक के मत से 'द्वितीयदलं' (ए० व०), अन्य मत से 'युगलदलयोः' (ब० व० रूप-सं० द्वि० व०) । णीव (२.१३६), एक के मत से 'नीपः' (ए० व०), अन्य के मत से 'नीपाः' (ब० व० )। देहा ('देह' का दीर्घरूप २.११७), एक के मत से 'देहः' (ए० व०), अन्य के मत से 'देहाः' (ब० ब०) । पुत्त पवित्त (२.९५), एक के मत से 'पुत्रः पवित्रः' (ए० व०), अन्य के मत से 'पुत्राः पवित्राः' (ब० व०)। विसुद्ध (२.११७), एक के मत से 'विशुद्धः' (ए० व०), अन्य के मत से 'विशुद्धाः' (ब० व०) । भम्मर (२.१३६), एक के मत से 'भ्रमरः' (ए० व०), अन्य के मत से 'भ्रमराः' (ब० व०)। मत्था (मत्थ का दीर्घ रूप २.१७५) एक के मत से 'मस्तकं' (ए० व०), अन्य के मत से 'मस्तकानि' (ब० व०)। इनके अतिरिक्त कुछ और भी स्थल देखे जाते हैं । कर्ता कारक ए० व० ७७. प्रा० भा० आ० में कर्ता ए० व० के ये सुप् विभक्ति चिह्न पाये जाते हैं :-(१)-स्, पुल्लिंग स्वरांत शब्दों तथा स्त्रीलिंग स्वरान्त शब्दों (आ, ई, ऊ अन्त वाले शब्दों को छोड़कर) के साथ; (२)-अम्, अकारांत नपुंसक लिंग शब्दों के साथ; (३) शून्य विभक्ति (जीरो), आ-ई-ऊकारांत स्त्रीलिंग, इकारांत-उकारांत नपुंसक लिंग तथा सब प्रकार के हलंत शब्दों के साथ । म० भा० आ० में आकर प्रा० भा० आ० के सभी हलंत शब्द अजंत या स्वरान्त हो गये हैं। म० भा० आ० की प्रथम स्थिति (अर्थात् प्राकृत) में हमें कर्ता कारक ए० व० में निम्न सुप् चिह्न मिलते हैं : (१)-ओ, जिसका विकास संस्कृत (प्रा० भा० आ०) 'स' से हुआ है। यह सदा अकारांत शब्दों के साथ ही पाया जाता है। पुत्तो < पुत्रः, (यह महाराष्ट्री-शौरसेनी का रूप है)। (२) -ए, इसका प्रयोग केवल मागधी तथा अर्धमागधी में पाया जाता है, पुत्ते < पुत्रः । (३) -अम्, यह अकारांत नपुंसक शब्दों में पाया जाता है। (४) स्वर का दीर्धीकरण; इकारांत, उकारांत शब्दों के रूपों में, अग्गी < अग्गिः, वाऊ < वायुः । (दे० पिशेल $ ३७७-३७८). (५) शून्य विभक्ति (जीरो); आकारांत शब्दों में (इनमें वे शब्द भी सम्मिलित हैं, जो मूलतः प्रा० भा० आ० में ऋकारांत तथा नकारांत थे) पु० भट्टा <भर्ता (भर्तृ-) पिआ (महा०), पिदा (शौर०, माग०) < पिता (पितृ-), राआ <राजा (राजन), अप्पा < आत्मा (आत्मन्), स्त्री०-माला < माला । म० भा० आ० की द्वितीय स्थिति या अपभ्रंश में, जैसा कि हम देख चुके हैं, प्रातिपदिक रूपों में फिर से एक परिवर्तन हुआ है। प्राकृत के आ, ई, ऊ अंत वाले स्त्रीलिंग रूप यहाँ आकर ह्रस्व स्वरांत (अ, इ, उ अन्त वाले) बन बैठे हैं। इस तरह स्त्रीलिंग अकारांत, इकारांत, उकारांत यहाँ आकर पुल्लिंग अकारांत, इकारांत, उकारांत शब्दों की तरह २७८). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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