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________________ ४५८ प्राकृतपैंगलम् ही सुप् प्रत्ययों का प्रयोग करने लगे हैं। दूसरी ओर अपभ्रंश में आकर नपुंसक लिंग का प्रयोग बहुत कम हो गया है, वे प्रायः पुल्लिंग शब्दों में ही लीन हो गये हैं, यद्यपि नपुंसक के कतिपय चिह्न अपभ्रंश में स्पष्ट परिलक्षित होते हैं । इस तरह अपभ्रंश में आकर कर्ता कारक ए० व० के निम्न सुप् चिह्न पाये जाते हैं : (१) -ओ -अओ (यह अपभ्रंश सुप् चिह्न न होकर प्राकृत रूप हैं)। (२) -उ, अकारांत पुल्लिंग नपुंसक लिंग शब्दों में, णिसिअरु (विक्रमोर्वशीय) < निशाचरः, णाहु <नाथः, कुमरु <कुमारः, घडिअउ घटितकः, नपुंसक-ठाणु <स्थानं, कमलु <कमलं, तणु रतनुः (प्रा० भा० आ० स्त्रीलिंग)। (३) शून्यरूप (जीरो), शेष सभी शब्दों में । इस प्रकार स्पष्ट है कि अपभ्रंश में ही शून्य रूपों की बहुतायत है, किंतु वहाँ अकारांत शब्दों में शून्य रूप प्रायः नहीं पाये जाते । न० भा० आ० में आकर प्रातिपदिक का प्रयोग खूब चल पड़ा है। प्राकृतगलम् में वैसे प्राकृत के ओ-वाले तथा ए-वाले रूप एवं अपभ्रंश के उ-वाले रूप भी मिलते हैं, पर अधिक संख्या शुद्ध प्रातिपदिक या शून्य विभक्ति (जीरो) वाले रूपों की ही है । (१) -ओ, -अओ, विभक्ति वाले रूपः-यह कर्ता कारक ए० व० का चिह्न प्रा० पैं० में प्रायः प्राकृत शब्दों में अधिक पाया जाता है । इसका प्रयोग प्रा० पैं० की भाषा में या तो (क) उस स्थान पर पाया जाता है, जहाँ शुद्ध परिनिष्ठित प्राकृत के उदाहरण हैं, या (ख) जहाँ छंदोनिर्वाह के लिए दीर्घ स्वर अपेक्षित है, अथवा चरण के अंत में तुक के लिए '-ओ' की अपेक्षा होती है, या (ग) मात्रिक तथा वर्णिक छंदों तथा गणों के नाम के साथ इसका प्रयोग पाया जाता है, जिनकी संख्या ऐसे ओकारांत रूपों में सबसे अधिक है, या (घ) यत्-तत् के रूप 'जो'-'सो के साथ । इस संबंध में इस बात का संकेत कर दिया जाय कि अकेला 'सो' ही प्राकृतपैंगलम् में ४० से अधिक बार प्रयुक्त हुआ है, तथा सो-जो दो तीन स्थान पर कर्म कारक ए० व० में भी प्रयुक्त हुए हैं, जिसका संकेत हम यथावसर करेंगे । ओवाले रूपों के उदाहरण ये हैं : पत्तो (१.१) < प्राप्तः, णाओ (१.१) <नागः, पाडिओ (१.२) < पातितः हिण्णो (१.३) < हीनः, जिण्णो (१.३) <जीर्णः, बुड्डओ (१.३) < वृद्धकः, वण्णो (१.४) < वर्णः, सूरो (१.१५) < सूरः, चन्दो (१.१५ (चन्द्रः, कुसुमो (१.१६) (लिंगव्यत्यय) < कुसुमं, मेहो (१.२८) < मेघः, खरहिअओ (१.६७) < खरहृदयः, कामो (१.६७) < कामः, हम्मीरो (१.७१) < हम्मीरः, जग्गंतो (१.७२) < जाग्रत् (हलंत का अजंतीकरण), णलो (१.७४) < नलः, वल्लहो (१.८३) < वल्लभः, कंपिओ ) कम्पितः झंपिओ ९१.१५५) < झम्पितः (आच्छादितः), संकरो (२.१४) < शंकरः, पुत्तो (२.२८) < पुत्रः, धुत्तो (२.२८) < धूर्तः, कण्हो (२.४९) < कृष्णः, तरणिबिंबो (२.७३) < तरणिबिंब (लिंगव्यत्यय), एसो (२.८५) < एषः, तरुणत्तवेसो (२.८५) < तरुणत्ववेषः, कोलो (२.१०७) < कौलः (कर्पूरमंजरी का उदाहरण), धम्मो (२.१०७ < धर्मः, रम्मो (२.१०७) < रम्यः (ये दोनों भी कर्पूरमंजरी के उदाहरण के शब्द हैं), गुरुप्पसाओ (२.११५) < गुरुप्रसादः (कर्पूरमंजरी का उदाहरण), रुद्दो (२.२०१) (कर्पूरमंजरी का उदाहरण)। उपर्युक्त उदाहरण प्रायः छंदों के उदाहरण के रूप में उपन्यस्त पद्यों से लिये गये हैं; लक्षण पद्यों में ओ-वाले रूप अधिक हैं, उन्हें साभिप्राय छोड़ दिया गया है। कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत के-ओ रूपों के लिए दे० ६ ११३। (२) -ए वाले रूप :-हम देख चुके हैं कि मागधी तथा अर्धमागधी प्राकृत में अकारांत शब्दों के कर्ताकारक ए०व० में-ए वाले रूप पाये जाते हैं । अर्धमागधी में पद्य भाग में तो -ओ (पुत्तो) रूप ही मिलते हैं। (दे० पिशेल ६ ३६३) अपभ्रंश में आकर पश्चिमी तथा पूर्वी दोनों विभाषाओं में -उ रूप मिलने लगे हैं । दोहाकोष की भाषा में -ओ, -उ के साथ ही यह सुप् चिह्न पाया जाता है, जिसके –'ए' -अए –'ये' (य-श्रुतियुक्त रूप) पाये जाते हैं । इसका प्रयोग यहाँ अविकारी कारक (कर्ता-कर्म) ए० व० में पाया जाता है। डा० शहीदुल्ला की गणना से स्पष्ट है कि ७०० ई० की पूर्वी अपभ्रंश में -'ए' का प्रयोग ७.१४% तथा -अए, -अये रूपों का प्रयोग १४.२८% पाया जाता है, १. Tagare : 88 80 A, 80 B Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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