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________________ पद - विचार ४५५ यहाँ इस बात का संकेत कर दिया जाय कि इन हलंत शब्दों को वर्तनी में अकारांत ही लिखा जाता है (नाक, राख, साग, बाघ, आदि) किन्तु पदांत अ का उच्चारण नहीं होता । इस तरह आधुनिक पश्चिमी हिन्दी में अकारांत को छोड़कर अन्य स्वरांत शब्द ही पाये जाते हैं । अपभ्रंश में आकर प्रा० भा० आ० तथा प्राकृत के स्त्रीलिंग आकारांत, ईकारांत, ऊकारांत शब्द ह्रस्वस्वरांत (अकारांत, इकारांत, उकारांत) हो गये हैं । प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिंदी में भी ये रूप आ गये हैं। इनके साथ ही यहाँ स्त्रीलिंग आकारांत, ईकारांत, ऊकारांत शब्द भी पाये जाते हैं, जिन्हें हम 'क- स्वार्थे' वाले रूपों से उद्भूत मान सकते हैं। संदेशरासक की भूमिका में प्रो० भायाणी ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि अप० के वास्तविक रूप ह्रस्वस्वरांत ही है। अल्सदोर्फ के अनुसार अपभ्रंश के समस्त एकाक्षर तथा अनेकाक्षर शब्दों में पदांत दीर्घ स्वर का ह्रस्वीकरण पाया जाता है । भायाणी ने संदेशरासक के 'मंजरी' शब्द पर विचार करते हुए बताया है कि सं० 'मंजरी' का अप० रूप 'मंजरि' होगा; किंतु 'अहिययर तविय णवमंजरीहि' (संदेश० २१० / २) का 'मंजरी' रूप सं० 'मंजरी' से विकसित नहीं है, अपितु इसके 'क- स्वार्थे' वाले रूप से 'मंजरिका' प्रा० मंजरिआ > अप० मंजरिय> मंजरी' क्रम से विकसित है। भायाणी ने 'छायंती, झंपंती, विहसंती, जंपंती, धरंती, तुट्टी, चडी, पिंजरीहि' आदि के दीर्घ ईकारांत शब्दों को इसी क्रम से विकसित माना है । ठीक यही बात हम आकारांत, ऊकारांत रूपों के विषय में भी कह सकते हैं, जिन्हें 'स्वार्थेक' वाले रूपों से ही विकसित मानना होगा; जैसे गाहा, माला, वरिसा, मही, सही, बहू, विज्जू । प्रा० पैं० के स्वरांत प्रातिपदिक ये हैं : पु० नपुं० प्रतिपदिक : अकारांत - वसंत, कंत, चंद, हर, अमिअ, समर, गुण, हत्थ, मलअ, भमर, घर, वित्त, कुंद, कर, पवण, अप्प, पास ( = पाशः) । आकारांत - राआ, अप्पा | इकारांत - अग्गि, अहि, गिरि, ससि, मुणि, साहि, विहि । उकारांत - महु, अणिपहु, गुरु, लघु । स्त्रीलिंग प्रातिपदिक : अकारांत - मत्त, रेह, गाह, खंज (< खंजा), बंझ (<वन्ध्या), सेण (<सेना) । आकारांत - (क- स्वार्थे वाले रूप ) - गाहा, माला, चंडिआ, बरिसा, सेणा । इकारांत - महि, मालइ कामिणि, धरणि, कित्ति, पिट्ठि (<पृष्ठं, लिंगव्यत्यय), ससिवअणि, गअगमणि, सहि, असइ, घरिणि, विजुरि, गुणवंति, पुहवि, सुंदरि, गुज्जरि णारि, गोरि, डाकिणि, कंति (=कांति), जणणि । ईकारांत (क- स्वार्थे वाले रूप) - मही, सही, तरुणी, रमणी । उकारांत - हु, तणु । ऊकारांत (क- स्वार्थे वाले रूप) - वहू, विज्जू । लिंग-विधान $ ७५. पुरानी पश्चिमी हिन्दी में लिंग अंशतः प्राकृतिक तथा अंशतः व्याकरणिक है । स्वयं प्रा० भा० आ० में हीलिंग अंशतः व्याकरणिक था तथा कलत्र, मित्र जैसे शब्द नपुंसक तथा दार जैसे शब्द पुल्लिंग पाये जाते हैं । प्रा० भा० आ० का लिंग-विधान प्राकृत में अपरिवर्तित रहा, किन्तु अपभ्रंश में आकर इसमें परिवर्तन हो गया है तथा हेमचन्द्र को यह कहना पड़ा था कि अपभ्रंश मं लिंग का निश्चित नियम नहीं है; 'लिंगमतन्त्रम्' (८४.४४५) । पिशेल ने भी 'ग्रामातीक देर प्राकृत स्प्राखेन' में अपभ्रंश की इस विशेषता का संकेत किया है। पिशेल ने लिंगव्यत्यय के उदाहरण हेमचन्द्र तथा प्राकृतपैंगलम् से दिये हैं, जहाँ यह लिंगव्यत्यय पाया जाता है। उदाहरण ये हैं १. Bhayani : Sandesarasaka (study) $ 28, $ 41 (d) Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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