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________________ ४५४ प्राकृतपैंगलम् विअसंत (२.९१) विकसत्, विआण-विआणहु (१.७६, १.७३) विजानीहि, विजानीत, विआरि (१.८१, १.१३४) =विचारय, विचार्य, विणास (१.२०७) विनाशः, विवरीअ (१.७०)-विपरीतां, विमल (अनेकों स्थान पर), विरमइ (१.१३३)-विरमति, विलसइ (१.१११) विलसति, विसज्जइ (१.३६) विसर्जयति । (१५) दु-<प्रा० भा० आ० 'दुः' (दुर्) । दुब्बल (१.११६) दुर्बल, दुरंत (२.२२) दुरंत, दुरित, दुरित्त, दुरित्तं (१.१११, १०४) दुरित, दुक्खाइ (२.२०) =दुःखानि । (१६) सं (सँ) < प्रा० भा० आ० 'सम्'-(अनेकों उदाहरण हैं, कुछ ये हैं) : संठवह (१.९५) संस्थापयत, सँतार (१.९) संतारं, संपलइ (१.३६) सम्पादयति, संभलि (१.११८)=सम्भाल्य, संहार (१.२०७)=संहारः । (१७) कु < प्रा० भा० आ० 'कु' । कुगइ (१.९) कुगति । (१८) सु < प्रा० भा० आ 'सु' (अनेकों उदाहरण, दिङ्मात्र निम्न हैं)। सुअणा (१.९४)-सुजनाः, सुकइ (१.१२९)-सुकविः, सुकंत (२.२२) सुगंध (१.१८८)-सुगंधाः, सुपसिद्ध (१.१३३) सुप्रसिद्धं सुमुहि (१.६९) सुमुखि (सम्बोधन कारक)। प्रातिपदिक : ७४. प्रा० भा० आ० के हलंत प्रातिपदिक म० भा० आ० में ही आकर अजन्त हो गये थे। इस तरह प्रा० त् (गच्छन्), राजन्, आत्मन् आदि के प्राकृत में गच्छन्तो, राआ, अप्पा रूप मिलते हैं । प्रा० भा० आ० के मूल हलंत शब्दों के अजंत रूप प्रा० पैं. की भाषा में कई शब्दों में पाये जाते हैं, कुछ उदाहरण ये हैं : धj (१.६७) < धनुः (कर्म कारक ए० व० रूप, प्रातिपदिक 'धणु' < धनुष), णामं (१.६९) < नाम (कर्म कारक ए० व० रूप प्रातिपदिक ‘णाम' < नामन्), जस (१.८७) < यशस्, संपअ (१.१९८, २.१०१) < संपत्, सिर (१.१०४) < शिरस्, णह (-पह) (१.१०६, १.१४७) नभस्, सुरसरि (१.१११) < सुरसरित्, साण (१.१२२) < श्वन्, सरअ (१.१२२) < सरस्, मणउ (१.१२३) < मनस्, दिग (१.१४७) < दिक्, पअ (-हर) (१.१६१) < पयस्, पाउस (१.१८८) < प्रावृष् (लिंगव्यत्यय), सरअ (२.२०५) < शरत् (लिंगव्यत्यय) । प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिन्दी में संज्ञा प्रातिपदिक, अन्य शब्दों की तरह स्वरांत ही हैं, व्यंजनांत नहीं । संस्कृत के हलन्त म० भा० आ० में ही अदंत हो गये थे, यह हम देख चुके हैं। पुरानी पश्चिमी हिन्दी के अकारांत प्रातिपदिकों में भी पदांत 'अ' का उच्चारण पाया जाता है, वह लुप्त नहीं हुआ था, पश्चिमी हिन्दी तथा उसकी विशेषताओं में पदांत 'अ' का उच्चारण बहुत बाद तक-यहाँ तक कि १७ वीं शती तक-पाया जाता है । इस दृष्टि से न० भा० आ० भाषा में पदान्त 'अ' के लोप की प्रवृत्ति में बँगला सबसे आगे रही है। बँगला ने पदांत 'अ' तथा (किन्हीं विशेष परिस्थितियों में) मध्यग स्वरों का लोप १५वीं शताब्दी में ही कर दिया गया था। इसके विपरीत उड़िया में पदांत 'अ' आज भी सुरक्षित है। पश्चिमी हिन्दी में पदांत 'अ', 'इ', 'उ' का प्रयोग १७ वीं शती तक सुरक्षित रहा है । पदांत 'अ' के लोप के कारण आज पश्चिमी हिन्दी की विभाषाओं में तथा राजस्थानी में भी-हलंत प्रातिपदिक भी पाये जाते हैं। हिन्दी के कुछ हलंत प्रातिपदिकों के उदाहरण ये हैं : नाक्, राख्, साग, बाघ, जहाज, बाँझ्, राँड्, खेत्, हाथ्, कान्, साँप, बरफ्, काम्, बेल् । १. Dr. Chatterjea : Origin and Development of Bengali Language, $$ 146-47. pp. 299-300 २. डा० तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास २९५. पृ० ४३०-३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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