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प्राकृतपैंगलम्
(५) - आर < -कार । ( कर्त्रर्थ में), अंधार (१.१४७ - अंधआर - अंधकार ) ।
(६) –आरी < –आरिका < -कारिक ( - कार + इक) । पूर्वोक्त प्रत्यय का ही विस्तृत रूप है। भिखारी (२.१२०
< भिक्खाआरिअ < भिक्षाकारिक) ।
(७) -कर, करु (<-कर
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'विनाशकरः) ।
उ) < सं० करः । सुक्खकरा (१.१७४ = सुखकर), 'विणासकरु (१.१०१ <
(८) -वाल < -पाल, (स्वाम्यर्थ में) गोवालो (१.२५ ८ गोपालः) ।
(९) ण <*ड (< (स्वार्थे) खुल्लण (१.७ < क्षुद्र + णः) ।
(१०) –ल < -ल (स्वार्थे) पिअला (= पिअल १. १६६ - प्रिय+ल), हिअला (१.१६६ < हृदय + लः), हिअलु (२.१९१ < हृदय+लः), पिअला (= पिअल १.९७ < पीत+लः - 'पीले रंग वाले), सीअल (१.१४० < शीत+लः) । (११) - लिआ <ल+इका (स्वार्थे स्त्रीलिंग) विज्जुलिआ (१.१८८ < विद्युत्+ल+इका), बहुलिआ (२.८३ < वधू +
ल+इका) ।
(१२) र < -ल (स्वार्थे) सावर (१.१३६ < श्यामलः) । रि<<ल+ई (स्वार्थे स्त्रीलिंग) विजुरि (१.१६५ < विद्युत्+ल+ई) मुंदरि (२.२०९ < मुद्रा+ल+ई) ।
(१३) - णि-णी, <- णिअ< सं० नी, णी, अनी, -निका डाकिणि (१.२०९ < डाकिनी), खत्तिणी (१.८३ * क्षत्रियाणी), गुव्विणी (१. गुर्विणी) ।
(१४) - वंत < सं० वत् (विशेषणबोधक) पुणवंत (१.१७१ - पुण्यवत्), गुणवंत (२.४४ – गुणवत्) । (१५) -वंति < सं० वत् + ई (स्त्रीलिंग), गुणवंति (१.१७१ - गुणवती) 1 (१६) –मत्त < सं०-मत् (वत्) 'ससिमत्त (१.१८२ < शशिमत् (वत्) ।
(१७) -तणं <- त्वन् (त्वं ) ( भाववाचक संज्ञा ) गहिलत्तणं १.३ ग्रहिलत्वं ।
(१८) - < त्वं (भाववाचक संज्ञा) कवित्त (२.३२ < कवित्वं), तरुणत्त (२.८५ < तरुणत्वं), बहुत्त (१.९५
< बहुत्वं ।
(१९) -ल <स०-ल ( तत्संबद्धार्थे) उवरल (१.३९ < उपरि + ल), पुच्छल (१.४० < पुच्छ+ल-हि० पिछला ) ।
प्रा० पैं० की भाषा में निम्न असमापिका क्रियागत कृदंत प्रत्यय पाये जाते हैं ।
(१) - अन्त ( - अन्तो, अन्तर < शत्रर्थ - अन् वर्तमानका० कृदन्त पु० ) । (२) - अन्ती ( वर्तमानकालिक कृदन्त स्त्री० )
(३) –इअ, इउ, (४) – इआ, इ,
-इओ (<क्तः, भूतकालिक कृदन्त पु० ) । ई (निष्ठा स्त्रीलिंग),
( ५ ) - हउ ( <न्नः भूतकालिक कृदंत प्रत्यय), (६) -ल (<*ल, भूतकालिक कृदन्त प्रत्यय), (७) -आ (< अउ इउक्तः के ब० व० रूप), (८) - ब (<तव्य, भविष्यत्कालिक कृदंत),
(९) - ऊण (< -त्वन् (त्वानं), पूर्वकालिक कृदंत),
(१०) - इअ (< -व्य ( - ल्यप्), पूर्वकालिक कृदन्त ),
(११) - ई < -इअ (सं० १० से विकसित पूर्वकालिक रूप) इन कृदन्त प्रत्ययों के ऐतिहासिक विकास तथा उदाहरणों के लिये- दे० 88 ११२ - ११५ ।
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